हरिद्वार। सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द परमहंस द्वारा संस्थापित सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद् के तत्त्वावधान में वैशाखी पर श्री हरिद्वार आश्रम में चल रहे सत्संग कार्यक्रम में महात्मा दीपक दास ने कहा कि वास्तव में कर्म तीन प्रकार के होते हैं, कुकर्म, सुकर्म और सत्कर्म। जो कर्म हमें नहीं करने चाहिये, किन्तु दुष्प्रवृत्ति और स्वार्थवश हम झूठ बोलना, चोरी, बेइमानी, धोखाधड़ी, हत्या, किसी को सताना आदि कुकर्म या पापकर्म हैं, जिनकी अन्तिम उपलब्धि यातनाओं से युक्त नरक है।
कहाकि ऐसे कर्म यज्ञ करना, धर्मशाला बनवाना, प्याऊ बनवाना, भूखों, गरीबों की सहायता करना आदि सुकर्म या पुण्यकर्म हैं जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। सुकर्म में स्थायित्त्व न होने के कारण पुण्य क्षीण होते ही स्वर्ग से धकेल दिये जाते हैं, जबकि सत्कर्म का फल सदा सर्वदा के लिये स्थायी होता है और वह है परमधाम की प्राप्ति। परमसत्य रूप परमात्मा के लियकिये गये कर्म को सत्कर्म कहते हैं।
महात्मा ने कहा कि कुकर्म-सुकर्म से मानव जीवन का मंजिल (मोक्ष) कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता, मंजिल अथवा मोक्ष ज्ञान और सत्कर्म से ही मिलेगा। कुकर्म और सुकर्म का सिद्धान्त पारिवारिक-सांसारिक जीवन जीने वालों पर ही लागू हो सकता है, सत्कर्मी पर नहीं, क्योंकि सत्कर्म का सिद्धान्त पृथक् और भिन्न होता है।
उन्होंने कहाकि कोई भी यह सोच-समझ सकता है कि जो व्यक्ति पारिवारिक संकुचित स्वार्थ रूप बन्धनों से अपने को ऊपर उठाकर भगवान रूप परमसत्य के सिद्धान्त पर अपने जीवन को धर्म, धर्मात्मा, धरती रक्षार्थ निष्काम सेवा भाव में रहने-चलने हेतु समर्पित-शरणागत कर या हो चुका हो, क्या उससे भी कुकर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है।