आदी शंकराचार्य ने विसंगतियों को दूर कर सनातन धर्म को पुनः प्रतिष्ठित कियाः चेतनानंद

हरिद्वार। श्री पंच दशनाम आवाह्न अखाड़े के राष्ट्रीय प्रवक्ता श्रीमहंत चेतनानंद गिरि महाराज ने कहाकि भारतवर्ष देवी-देवताओं के अवतारों की भूमि रही है। इन्हीं अवतारों में एक भगवान शंकर का अवतार कहे जाने वाले आदी गुरु शंकराचार्य भगवान का अवतरण भी आज ही के दिन 2531 वर्ष पूर्व भारत की पवित्र भूमि पर केरल राज्य के अर्नाकुलम जिलान्तर्गत काल्टी गांव में हुआ था। उनके पिता शिवगुरु एवं माता आर्याम्बा को उनकी उपासना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने स्वयं उन्हंे उनके पुत्र के रूप में अवतार लेने का वरदान दिया था। इसी कारण इनका नाम शङ्कर रखा गया था।


कहाकि भारत में सदियों तक आक्रान्ता मुगलों तथा अंग्रेजों का शासन रहा । इन शासकों ने यहां की संस्कृति, परम्परा तथा गौरवशाली अतीत को नष्ट करने तथा अपने अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए यहां के गौरवमय इतिहास को नष्ट करते हुए इसे गलत ढंग से तैयार करवाया। शिवावतार भगवत्पाद आदि शङ्कराचार्य महाभाग के अवतारकाल के साथ भी ऐसा ही हुआ। ईसवी सन् के पूर्व किसी सार्वभौम धार्मिक गुरु होने की सच्चाई को अंग्रेज आत्मसात नहीं कर सके। अतः षड्यन्त्रपूर्वक आदिशङ्कराचार्य महाभाग के अवतार काल ईसवी सन् के 507 वर्ष पूर्व की जगह 8वीं शताब्दी प्रचारित-प्रसारित करवा दिया। परिणाम यह हुआ कि भारत के तथाकथित शिक्षित महानुभाव एवं शिक्षण संस्थाएं भी अंग्रेजों के इस षड्यन्त्र को न समझकर आदिशङ्कराचार्य महाभाग के अवतारकाल 8वीं शताब्दी मानने के पूर्वाग्रह से ही ग्रस्त हैं।


स्वामी चेतनानंद गिरि महाराज ने कहाकि भविष्योत्तर में भी आदिशङ्कराचार्य भगवान् का जन्म युधिष्ठिर संवत् 2631 ही वर्णित है। द्वारका शारदापीठ के प्रथम शङ्कराचार्य श्रीमज्जगद्गुरु सुरेश्वराचार्य के साक्षात् पट्टशिष्य चित्सुखाचार्य ने भी अपने ग्रन्थ ‘शङ्करविजय’ में भगवत्पाद का आविर्भाव युधिष्ठिर संवत् 2631 ही उद्घोषित किया है। जैनोंके अभिमत जिनविजय के अनुसार तथा पुण्यश्लोकमञ्जरी के अनुसार भगवत्पाद का निर्वाण युधिष्ठिर संवत् 2662 सिद्ध है। इस प्रकार उससे 31 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर संवत् 2631 ही उनका जन्मकाल सिद्ध होता है। भगवत्पाद ने युधिष्ठिर संवत् 2651 में अर्थात् ईसवी सन् से 487 वर्ष पूर्व नेपाल की भी यात्रा की थी। राजा सुधन्वा द्वारा भगवत्पाद को समर्पित ताम्र प्रशस्तिपत्र में भी युधिष्ठिर शक 2663 का उल्लेख है जो भगवत्पाद के देहावसान का वर्ष है। ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय गोवर्द्धनमठ पुरी पीठ की स्थापना ईसवी सन् से ४८६ वर्ष पूर्व हुई और तबसे अभी तक के सभी शङ्कराचार्यों का उल्लेख उनके कार्यकाल के साथ उपलब्ध है जिससे आदिशङ्कराचार्य महाभाग का अवतार ईसवी सन् से 507 वर्ष पूर्व ही सिद्ध होता है न कि ईसवी सन् के बाद।

उन्होंने कहाकि आदिशङ्कराचार्य महाभाग का मात्र 32 वर्ष का जीवनकाल अनेक विचित्रताओं से भरा रहा। पांच वर्ष की अवस्था में उनका उपनयन संस्कार हुआ। आठ वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो चुका था। सन्यास लेने की भावना से आठ वर्ष की अवस्था में ही शङ्कर ने वैधव्य, जरावस्था तथा सन्यास के लिए पुत्र का गृहत्याग करने पर होनेवाली पुत्रवियोग की व्याकुलता तथा मरणोत्तर संस्कारादि की चिन्ता से विह्वल माता से अनुमति प्राप्त कर गृहत्याग कर दिया। युधिष्ठिर शक 2639 कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी को संन्यास पथपर प्रयाण कर युधिष्ठिर शक 2640 फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, गुरुवार को उन्होंने गुरुवर यतीन्द्र श्रीगोविन्द भगवत्पाद से विधिवत् सन्यास ग्रहण किया।


श्रीभगवत्पाद शङ्कराचार्य ने बदरीकाश्रम में रहकर युधिष्ठिर संवत् 2640 से 2646 तक नौ से सोलह वर्ष की आयु तक श्रीविष्णुसहस्रनाम, श्रीमद्भगवद्गीता, ईश- केनादि उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों पर अद्भुत भाष्य लिखे। उन्होंने प्रपञ्चसार नामक तन्त्रग्रन्थ, विवेकचूड़ामणि आदि प्रकरणग्रन्थों तथा सौन्दर्यलहरी आदि स्तोत्रग्रन्थों की भी रचना की।


स्वामी चेतनानंद गिरि महाराज ने कहाकि 9 वर्ष की अल्पायु की सीमा में ही आदिशङ्कराचार्य महाभाग ने उस समय भारत में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव और सनातन धर्म के विरुद्ध उत्पात एवं सनातन देवी-देवताओं के अपमान का सामना करने में असक्षम बन चुके सनातनियों को संगठित कर तथा सनातन धर्म में पैठ बना चुकी विसंगतियों को दूर कर सनातन धर्म को पुनः प्रतिष्ठित किया ।


देश में धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था सही ढंग से चलती रहे इस उद्देश्य से उन्होंने देश के चार भागों पुरी, शृंगेरी, द्वारिका तथा बदरीकाश्रम में चार शङ्कराचार्य आम्नाय मठों अर्थात् धार्मिक राजधानियों की स्थापना की तथा चारो मठों में एक-एक शङ्कराचार्य को प्रतिष्ठित कर सनातन धर्म की परम्परा को सुरक्षितद रखने का मार्ग प्रशस्त किया । चारों मठों के शङ्कराचार्यों को शिवावतार मानते हुए उन्होंने सबों का महत्त्व अपने समान ही प्रतिष्ठित किया। इससे पूर्व स्वामी चेतनानंद गिरि महाराज ने आदी शंकराचार्य भगवान को पूजन-अर्चन किया व आरती उतारी। इस अवसर पर अनेक संत व भक्तगण मौजूद रहे।

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