हम सब जानते हैं कि मच्छर के काटने से मलेरिया होता है। वर्ष में कम से कम 1500 बार तो मच्छर काटते ही होगें। अर्थात् 70 वर्ष की आयु तक लाखों बार तो मच्छर काटते ही होंगे। लेकिन अधिकांश लोगों को जीवनभर में दो-चार बार ही मलेरिया होता है। सारांश यह कि मच्छर के काटने से मलेरिया होता है।
बैक्टीरिया बिना वातावरण के पनप नहीं सकते। जैसे दूध में केवल दही डालने से दही नहीं बनता। दूध हल्का गर्म होना चाहिए। उसे ढककर गर्म जगह में रखना होता है। बार-बार हिलाने से भी दही नहीं जमता। अर्थात् जब तक 6 घंटे तक पूरा वातावरण नहीं मिलता, दही नहीं जमता। ऐसे ही मलेरिया के बैक्टीरिया को जब पित्त का वातावरण मिलता है तभी वह 4 दिन में पूरे शरीर में फैलता है, नहीं तो थोड़े समय में ही खत्म हो जाता है। सारे मच्छर मार प्रयासों के बाद भी मच्छर या और कोई रोगवाहक सूक्ष्म कीट नहीं काटेंगे यह हमारे हाथ में नहीं, लेकिन पित्त को नियंत्रित रखना हमारे हाथ में है।
वर्षा के बाद शरद ऋतु आती है। आकाश में बादल-धूल न होने से कड़क धूप पड़ती है, जिससे शरीर में पित्त कुपित होता है। इसी समय गड्ढों में जमा पानी के कारण बहुत बड़ी मात्रा में मच्छर पैदा हो जाते है। इससे मलेरिया होने का खतरा सबसे अधिक होता है।
खीर खाने से पित्त का शमन होता है। शरद ऋतु में ही पितृ पक्ष (श्राद्ध) आता है। पितरों का मुख्य भोजन है खीर। इस दौरान 5-7 बार खीर खाना हो जाता है। इसके बाद शरद पूर्णिमा को रातभर चादनी के नीचे चांदी के पात्र में रखी खीर सुबह खाई जाती है। यह खीर विशेष ठंडक पहुंचाती है। गाय के दूध की हो तो विशेष गुणकारी भी। इससे मलेरिया होने की संभावना नहीं के बराबर रह जाती है।
ध्यान रहे:- इस ऋतु में बनाई गई खीर में केसर और मेवों आदि का प्रयोग नहीं होता। मलेरिया होने के बाद कड़वी दवाइयाँ खाकर, हजारों रुपये खर्चकर, जोखिम उठाकर ठीक होने में अधिक वैज्ञानिकता है या स्वादिष्ट व पौष्टिक खीर खाकर मलेरिया होने ही न देने में अधिक वैज्ञानिकता?
आज भयंकर षड्यंत्र के तहत आयुर्वेद की शिक्षा दी नहीं जा रही है। बड़ी धूर्तता से हमारंे स्कूलों से निकले लोगों में यही धारणा बैठा दी गई है कि आयुर्वेद मात्र जड़ी-बूटी चिकित्सा शास्त्र (हर्बल धेरेपी) है। जबकि जड़ी-बूटी तो मात्र आयुर्वेद का 10 प्रतिशत है। 90 प्रतिशत आयुर्वेद तो हमारी समृद्ध परंपराओं में है।
अमावस, पूर्णिमाः-
अब तक हम समझ चुके हैं कि जल में ठंडक है जबकि चिकनाई बिल्कुल नहीं है। इसलिए जल वात को बढ़ाता है। चंद्रमा का संबंध जल से है। चंद्रमा के कारण ही समुद्र में ज्वार-भाटा आता है। पूर्णिमा के दिन शरीर में वात बढ़ता है। चंद्रमा का संबंध मन से है और मन का वात से।
अतः बहुत से व्यक्तियों में पूर्णिमा ग्रहण के दिन या इसके आसपास चिड़चिड़ापन-उग्रता, सनक, बेचैनी आदि मानसिक लक्षण प्रकट होते हैं या दर्द आदि शारीरिक लक्षण बढ़ जाते हैं तो ऐसे व्यक्ति निश्चित रूप से वात के रोगी हैं। ऐसे लोगों के लिए पूर्णिमा के तीन दिन पहले से ही वातशामक उपाय विशेष रूप से करने चाहिए।
अमावस के दिन चंद्रमा का अभाव हो जाता है। इसलिए ठंडक के अभाव में शरीर में पित्त कुपित होता है। पित्त का संबंध उष्णता से है इसलिए शरीर में उष्णता बढ़ती है। खीर पित्त को कम करती है, इसलिए देश के बहुत बड़े हिस्से में अमावस के दिन खीर खाने का विधान है। पित्त का संबंध बुद्धि से है, पित्त कुपित होने से गलत निर्णय होने, शीघ्र क्रोध आने की संभावना रहती है। इसलिए नये कार्यों को टाला जाता है। प्रायः गाँवों में अमावस के दिन छुट्टी रखी जाती है।
आईये! खीर खायें-मलेरिया भगायें। खीर खाते समय यह भी याद रखें कि क्या एक कटोरी खीर किसी ऐसे व्यक्ति को भी खिलायी जा सकती है जिसके पास खीर पहुंचने की संभावना ही न हो?
Dr. (Vaid) Deepak Kumar
Adarsh Ayurvedic Pharmacy
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