दौलत के साथ शोहरत और सम्मान भी मिलता है मुफ्त
हरिद्वार। वैसे तो बिना पूंजी लगाए कोई भी व्यवसाय संभव नहीं है। और बिना काम के कोई भी अमीर नहीं बन सकता। वह भी कुछ ही दिनों में। आप सोचकर हैरान अवश्य होंगे की ऐसा कौन सा व्यवसाय है। जिसमें बिना पूंजी लगाए करोड़पति बना जा सकता है। इतना ही नहीं इस व्यवसाय में दौलत के साथ शोहरत और सम्मान भी मुफ्त मिलता है।

यह व्यवसाय है भगवा धारण कर कालनेमि बनने का। जहां भगवा धारण करते ही नोटों की भरमार के साथ ऐश का जीवन है। सम्मान है और ठाठ बाट। बस इसके लिए इतना करना है कि कोई मालदार बड़े आश्रम या मठ वाला महात्मा चुनिए या फिर जो संत अंतिम संांसे गिन रहा हो उसकी शरण पकड़ लिजिए और उसका चेले बन जाएं। फिर कुछ दिन उसके मुताबिक काम करें और उसे विश्वास में लेकर आसानी से अमीर बन सकते हैं। यदि किसी अखाड़े में जाकर किसी बड़े संत का आप चेला बन जाते हैं तो पलक झपकते ही आपके सारे काम सिद्ध।
फिर क्या है आप अखाड़े या मठ से जुड़ी सम्पत्ति को बेचिए और करोड़ों कमाईए। आलीशान मकान में रहिए, लग्जरी गाडि़यों में घुमिए, पांच सितारा होटलों में रात बिताईए, विदेशों की सैर करिए वगैरहा-वगैरहा। जब इतने ठाट बाट होते हैं तो संत बनने के बाद नेताओं से भी सम्पर्क हो ही जाते हैं। कभी संत रूपी कालनेमि नेताओं के पास जाते हैं तो कभी नेता कालनेमियों के पास आते हैं। इस आवागमन के साथ शुरू हो जाता है, लोगों के तबादले, अटकी हुई फाइलों को आगे बढ़वाना, ठेके दिलवाना, प्रमोशन आदि करवाने के नाम पर लोगों से धन वसूला। नेताओं के साथ फोटो खिंचवाकर उसका प्रचार कर अपना रूतवा दिखाना, लोगों की जमीनों, आश्रमांे, मठों पर कब्जा करना। यदि कोई अड़चन आए तो नेताओं को भी उसमें हिस्सेदार बनाना। संत बनने के बाद कोई जांच आदि के फेर में फंस गए तो सीएम या पीएम रिलिफ फंड में लाखों रुपये दान देकर अधिकारियों पर अप्रत्यक्ष रूप से दवाब बनाकर अपना उल्लू सीधा करना। इस सबके बावजूद ये धर्म धुरंधर, धर्मध्वजा वाहक, सनातन के आधार स्तम्भ तक बन जाते हैं। जबकि अधिकांश इन उपाधियों से अलंकृत कालनेमियों का ज्ञान से कोई वास्ता नहीं होता। कोई अन्तराष्ट्रीय संत बन जाता है। अब को कुकरमुत्ते की भांति गली-मौहल्लों में शंकराचार्यों की बाढ़ सी आ गयी है। आखिर इन्हें बनाता कौन है और उपाधि से अलंकृत कौन करता है। स्पष्ट है कि एक कालनेमि दूसरे कालनेमि को अलंकृत करता है और दोनों मिलकर धर्म की आड़ में धर्म का ह्ास करते हैं। और धर्म को धारण करने वाली जनता इन कालनेमियों के झांसे में आकर अपनी मेहनत की कमाई इनकी ऐश पर लुटा देती है। या फिर से उससे धर्म का भय दिखाकर लूट लेते हैं। हालांकि अब कालनेमियों का आवरण धीरे-धीरे समाज के सामने आने लगा है। इतना ही नहीं करोड़ो ंरुपये देकर अखाड़ों में सम्मानित पद आचार्य मण्डलेश्वर भी बना जा सकता है। जबकि मण्डलेश्वर के लिए 25 से 50 लाख खर्च करने होते हैं। यदि किसी को किसी विशेष स्थान का व्यवस्थापक बनना होता है तो उसका चढ़ावा अलग से चढ़ाना होता है। यहां तक की कारोबारी, जिलेदार, अष्टकौशल, श्रीमहंत, पंच आदि बनने के लिए भी चढ़ावा चढ़ाना अनिवार्य होता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो उसकी छुट्टी। बावजूद इसके ये कालनेमि स्वंय को सबसे बड़ी त्याग की मूर्ति बताने में भी पीछे नहीं रहते। ऐसा नहीं की भगवा धारण किए हुए सभी कालनेमि हैं। बड़ी संख्या में आज भी संत मौजूद हैं। हां इतना जरूर है कि भगवे की आड़ में कालनेमियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।