हरिद्वार। उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही छठ महापर्व का सोमवार को समापन हो गया। भगवान सूर्य को सुबह अर्घ्य देने के साथ ही व्रतियों ने अपना व्रत पूरा कर परिवार की खुशहाली की कामना की। पूर्वांचल समाज के साथ स्थानीय लोगों ने भी छठ महापर्व बड़े ही धूमधाम से मनाया। गंगा के घाटों में व्रतियों ने भगवान सूर्य को अर्घ्य देकर अपने परिवार की खुशहाली की कामना की। जिसके बाद व्रतियों द्वारा जल और अन्न ग्रहण किया गया।
पूर्वांचल के सबसे बड़े त्यौहार छठ का आज उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के साथ समापन हो गया। तीर्थगनरी में सुबह से छठ घाट में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहा। बड़ी संख्या में महिला श्रद्धालुओं द्वारा उगते हुए सूर्य भगवान को अर्घ्य देकर अपने परिवार की खुशहाली की कामना की गई। श्रद्धालुओं ने बताया कि व्रतियों द्वारा 48 घंटे का व्रत रखा जाता है। जिसमें 36 घंटे निर्जला व्रत रखा जाता है। उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के बाद व्रती जल और अन्न ग्रहण करती हैं। पहले दिन नहाय खहाय, दूसरे दिन खरना तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। चौथे दिन सुबह उगते हुए सूर्य भगवान को अर्घ्य देने के साथ ही छठ महापर्व का समापन होत है।
उदयीमान भास्कर को अर्घ्य देने के लिए सुबह सूर्योदय से पहले ही लोग अपने-अपने घरों से घाट के लिए निकल पड़े थे। घाट पर पहुंचने के बाद श्रद्धालुओं ने गंगा में खड़े होकर भगवान भास्कर के उदित होने का इंतजार किया। जैसे ही सूर्य की किरणें उदित हुईं, सूर्य भगवान को मंत्रोच्चार के साथ जल और दूध अर्पित किया। इस दौरान घाट पर सुरक्षा की व्यवस्था की गई थी।
छठ पर्व के संबंध में में एक पौराणिक कथा के मुताबिक, प्रियव्रत नाम के एक राजा थे। उनकी पत्नी का नाम मालिनी था। दोनों की कोई संतान नहीं थी। इस वजह से दोनों दुःखी रहते थे। एक दिन महर्षि कश्यप ने राजा प्रियव्रत से पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करने को कहा। महर्षि की आज्ञा मानते हुए राजा ने यज्ञ करवाया, जिसके बाद रानी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। दुर्भाग्यवश वह बच्चा मृत पैदा हुआ। इस बात से राजा और दुखी हो गए। उसी दौरान आसमान से एक विमान उतरा जिसमें माता षष्ठी विराजमान थीं। राजा के प्रार्थना करने पर उन्होंने अपना परिचय दिया। उन्होंने बताया कि मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठी हूं। मैं संसार के सभी लोगों की रक्षा करती हूं और निःसंतानों को संतान प्राप्ति का वरदान देती हूं। तभी देवी ने मृत शिशु को आशीर्वाद देते हुए हाथ लगाया, जिससे वह पुनः जीवित हो गया। देवी की इस कृपा से राजा बेहद खुश हुए और षष्ठी देवी की आराधना की। इसके बाद से ही इस पूजा का प्रसार हो गया।