गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः
सनातन काल से ही इस देश में तंत्र को ज्ञान कर्म और उपासना का स्रोत समझा जाता रहा है। तंत्रों के बारे में जो अनेक भ्रम और धारणाएं फैली हैं। इसमें तंत्र परंपरा का दोष नहीं वरन उन छदम कथित तांत्रिकों का दोष है। जो बिना तंत्र ज्ञान के ही तांत्रिक बन गए। ऐसे ही लोगों द्वारा तंत्र मंत्र के नाम पर पूजा पाठ की आड़ में व्यभिचार भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देकर जनमानस को तंत्र के नाम पर भयभीत किया जाता है। तंत्र जगत में इन्हीं लोगों द्वारा पंच मकार की भी गलत व्याख्या कर दुष्प्रचार किया गया ।वास्तव में पवित्र पंच मकार क्या है। मैंने दुर्लभ प्राचीन ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इस लेख माला को लिखा है। आशा है आप पंच मकार के रहस्य को समझेंगे।

तंत्र-साहित्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत है जिसे मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया गया है। विष्णुक्रान्ता, रथक्रान्ता और अश्वक्रान्ता। प्रत्येक के 64 तंत्र हैं। इन 64 तंत्र के साहित्य की विचारधाराओं को भी तीन अलग-अलग भागों में विभक्त किया जा सकता है। ब्राह्मण तंत्र, बौद्ध तंत्र और जैन तंत्र। ब्राह्मण तंत्र की भी तीन विशिष्ट शाखाएं हैं। वैष्णवतंत्र, शैवतंत्र और शाक्ततन्त्र। इन तीनों तंत्रों का विशाल साहित्य उपलब्ध् है। फिर भी यह स्वीकार किया जाता है कि इनमें शाक्त तंत्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। शाक्त तंत्र में शक्ति की उपासना की जाती है।’
करीब दो हजार वर्ष पहले तांत्रिक साधना में सिद्धि-लाभ के लिए चार मुख्य पीठों की स्थापना हुई। जालंधर पीठ, कामाख्या पीठ, पूर्णागिरि पीठ और उड्डयान पीठ। पीठ का अर्थ है-शक्ति केंद्र-एक ऐसा केंद्र जिसका अगोचर सम्बन्ध दैवीय राज्य और भावराज्य से जुड़ा होता है। इनके विषय में और उनकी महत्ता के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। वास्तविक ज्ञान तो गुरुमुख से उनके सान्निध्य में रहकर ही मिलता है लेकिन मुश्किल यह है कि सच्चे गुरु पहले तो मिलते ही नहीं हैं, यदि मिल भी जाएँ तो वे तंत्र के रहस्यों के बारे में चुप ही रहते हैं। एक ओर तो ये समस्याएं हैं और दूसरी ओर यह भी निस्संदेह सत्य है कि तंत्र और उनकी साधना के नाम पर मदिरा, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन के सेवन का मार्ग चारों ओर प्रशस्त हुआ मिलता है।’
आज के तथाकथित तांत्रिक जहाँ देखो, वहां इन पञ्च मकारों के नाम पर समाज में व्यभिचार, पापाचार फैलाते मिल जाते हैं। उन्हें मदिरा और मैथुन आदि का भरपूर आकर्षण यहाँ मिलता है, कुत्सित उद्देश्यों की पूर्ति होती है। निश्चित ही आज के तथाकथित तांत्रिक इन्ही सबके फलस्वरूप इस ओर झुकते हैं। जगह-जगह पर गुप्त साधना-केंद्र बनाकर लोगों को ठगने का तो धन्धा चला ही रहे हैं, साथ ही भोली-भाली स्त्रियों और कन्याओं को भी फंसाकर अपनी काम-पिपासा का शिकार बनाते हैं।
ऐसा लगता है कि इस तरह की साधना-पद्धति में ऐसे ही लोगों का हाथ रहा है जो किसी भी दृष्टि से साधक या तांत्रिक नहीं कहे जा सकते। यदि शासन-प्रशासन इस ओर ध्यान दे और इन तथाकथित तांत्रिक साधना केंद्रों की ईमानदारी से कड़ाई से जाँच करे तो यह कहते हुए अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इनमें से 95 प्रतिशत साधना केंद्र धड़ाधड़ बन्द हो जायेंगे। इतना ही नहीं, पुलिस की रेड पड़ने के डर से ये तथाकथित दाड़ी और जटा-जुट वाले नकली तांत्रिक नाई की दुकानों पर कतार बद्ध दिखाई देंगे। लेकिन वह दिन शायद अभी निकट भविष्य में आता हुआ दिखाई नहीं देता जब नकली ढोंगी, पाखंडी तांत्रिकों का भंडाफोड़ होगा। मगर ऐसा ही अभियान आदिगुरु शंकराचार्य ने समाज में सहस्राब्दियों पहले चलाया था और उन्होंने वास्तविक सनातन धर्म और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए पूरे भारत वर्ष की पदयात्रा की थी और चार धामों की स्थापना की थी। आज फिर से एक और शंकराचार्य की समाज को महती आवश्यकता है’
’पञ्च मकारों में मद्य (मदिरा) के विषय में गत पोस्ट में विचार किया जा चुका है। अब दूसरा है मांस।
मांस-तांत्रिक साधना में श्मद्यश् की तरह मांस का सेवन करने का विधान है। लेकिन यह श्मांसश् क्या वही मांस है जिसका सेवन आमतौर पर लोग करते हैं ? नहीं, ये मांस अलग है। इसका अर्थ अलग है। इसका आशय है-प्रिय। कल्याणकारी होने के कारण, अमृतस्वरूप आनन्द प्रदान करने के कारण और सभी देवताओं का प्रिय होने के कारण उसका नाम श्मांसश् है। क्या ये सारे गुण साधारण मांस में मिलते हैं ? नहीं, यद्यपि श्पाशुपतश् मत के अनुसार पशु शब्द का अर्थ जीव से लिया गया है, लेकिन यहाँ पशु का अर्थ पाप-पुण्य भाव रूपी पशु से लिया गया है। हमारे ह्रदय में जो भी भाव होते हैं, तंत्र उन्हें पशुभाव मानता है। तंत्र में पुण्य और पाप को महत्त्व न देकर भावरहित अवस्था को श्रेष्ठ मानता है। जब तक साधक के मन में पाप या पुण्य के भाव का अस्तित्व है, तब तक वह पशु की श्रेणी में है। ऐसे ही अज्ञान रूपी पशु को ज्ञान रूपी खड्ग से मारकर मांस भक्षण करना मांसाहार के समान है। कुलार्णव तंत्र में कहा गया है।
पुण्यापुण्ये पशुम् हत्वा ज्ञानखड्गेन योगवित्।
परे शिवे ! नयेच्चितं पलाशी स निगद्यते।।
मनसा चेन्द्रियगणं संयोज्यात्मनि योगवित्।
मांसाशी भवेद देवि शेषारू स्युरू प्राषिहिंसकः।।
अर्थात-हे देवि ! ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा पुण्य और पाप रूूपी पशुओं का हनन करने वाला और अपने मन को पर (ब्रह्म) में लीन करने वाला साधक ही वास्तव में मांसाहारी है। केवल वही योग के ज्ञाता साधक मांसाहारी कहे जा सकते हैं जो सभी इंद्रियों का मन के द्वारा संयोजन करके आत्मा में उन्हें प्रविष्ट करा देते हैं।
अज्ञानेन यो हन्त्यादात्मार्थ प्राणिनः प्रिये।
निवसेन्नर के धीरे दिनानि पशुरोमभिः।।
अर्थात-हे प्रिये ! पूर्णरूपेण अर्थ समझें बिना इन पञ्च मकारों में मांस आदि का भौतिक रूप से सेवन करने वाले साधक बहुत बड़ी भूल करते हैं।
’स्वनिमित्तं तृणं वापि छेदयेन्न कदाचन।’
’आत्मार्थ प्राणिनां हिंसा कदाचिन्नोदिता प्रिये।।’
अर्थात-हे प्रिये ! अपने प्रयोजन के लिए प्राणियों की हिन्सा की बात तो दूर, एक तिनके की नोक से छेदकर भी किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए।
जहाँ हमारे तंत्र-ग्रंथों में अहिंसा की इतनी उच्च भावना उल्लिखित हो, वहां मांस खाने के के लिए पर जीव की हिंसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। फिर ये मद्य, मांस आदि की बात तांत्रिक परंपरा में कहाँ से प्रवेश कर गयी ?’
इसका सीधा-सा उत्तर है कि जिस प्रकार से महर्षि वशिष्ठ ने अनार्य संस्कृति से प्रेरित होकर तंत्र की विधा को अपनाया था लेकिन उन्होंने अपनी ऋषि परंपरा और उसकी मर्यादा का ध्यान रखकर उसमें आर्य तत्वों का समावेश कर सुधार कर लिया। लेकिन ऐसे कितने वशिष्ठ थे जो आर्य अनुकूल मार्ग पर चले ? शायद उनके अनेक तांत्रिक समसामयिक साधकों ने उन्हीं अनार्य तांत्रिक क्रियाओं का पालन किया जिसका परिणाम यह सामने आया कि उस समय से दो सामानांतर तांत्रिक धाराएँ समाज में चलनी आरम्भ हो गईं। अच्छाई की तुलना में बुराई शीघ्र फैलती है, इसका भी वही परिणाम हुआ जो बाद के वर्षों में देखा गया। तांत्रिक अभिचार करने वाले तथाकथित भ्रष्ट और निकृष्ट स्वार्थी तांत्रिकों का बोलबाला समाज में हो गया और तंत्र-मंत्र के नाम पर और उसकी दीक्षा तथा सिद्धि के नाम पर समाज की कन्यायें और स्त्रियां सुरक्षित नहीं रह गईं। लोग तांत्रिकों के नाम से कांपने लगे। लोगों ने अपनी बहू-बेटियों को घर सेे बाहर जाने से इनकार कर दिया। इसके साथ ही एक बुराई और उतपन्न हो गयी। जन साधारण में उनका इतना आतंक छा गया कि लोग कन्या के नाम से संतान उत्पन्न करने से भी घबराने लगे। कहीं-कहीं तो उसका रूप और भी वीभत्स हो गया। यह कहते हुए बहुत अफसोस होता है कि घर में कन्या पैदा होते ही लोग उसको गला दबाकर मारने भी लगे।
शेष आगे के लेख भाग 6 में पढ़ें…………