संत की मायाः ना वारिस न अधिकार फिर भी बेच रहे दूसरों की सम्पत्ति और घर-बार

हरिद्वार। मठ का वारिस और अन्य किसी प्रकार से अधिकार न होने के बाद भी निरंजनी पीठाधीश्वर स्वामी कैलाशांनद गिरि महाराज काली मंदिर पर कब्जा जमाए बैठे हैं। यह हम नहीं बल्कि कोर्ट का आदेश बोल रहा है।
बता दें कि तत्कालीन श्री दक्षिण काली मंदिर के महंत ब्रह्मचारी सुरेशानंद महाराज ने चण्डी मंदिर पर अपना अधिकार बताते हुए वर्ष 1998 में एक वाद संख्या 181/98 सिद्धपीठ काली मंदिर बनाम महंत रामपुरी दायर किया था। ब्रह्मचारी सुरेशानंद की मृत्यु के पश्चात स्वामी कैलाशानंद ने स्वंय को ब्रह्मचारी सुरेशानंद का उत्तराधिकारी बताते हुए वाद की पैरवी की। जिसमें उन्होंने स्वंय को अग्नि अखाड़े का थानापति और मंदिर का वारिस बताया। जिसमें मामले की सुनवाई करते हुए दिनांक 28 नवम्बर 2008 को सिविल जज एसडी प्रथम एफटी हरिद्वार श्रीमती नीलम रात्रा ने स्वामी कैलाशानंद द्वारा थानापति के प्रस्तुत प्रपत्रों पर भी प्रश्नचिह्न लगाते हुए उन्हें खारिज कर दिया और ना ही उन्हें ब्रह्मचारी सुरेशानद ब्रह्मचारी का वारिस व उत्तराधिकारी माना। बावजूद इसके श्री दक्षिण काली मंदिर पर स्वामी कैलाशानांद महाराज का कब्जा है। अब इस लड़ाई को ब्रह्मलीन ब्रह्मचारी स्वामी सुरेशानंद महाराज के शिष्य ब्रह्मचारी विवेकानंद न्यायालय में लड़ रहे हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक संत ने कहाकि जब दक्षिण काली मंदिर का कोर्ट द्वारा स्वामी कैलाशांनद गिरि महाराज को उत्तराधिकारी व वारिस मानने से इंकार कर दिया है तो वे स्वामी रसानंद की सम्पत्ति पर उनका कैसे अधिकार हो सकता है और कैसे उसे विक्रय किया जा सकता है। जबकि देहरादून राजस्व कोर्ट के आदेश में रसानंद की सम्पत्ति में उन्हीं का नाम दोबारा चढ़ाने के आदेश पारित किए गए हैं। जब सम्पत्ति के स्वामी रसानदं महाराज आज भी मालिक चले आ रहे हैं तो उनकी सम्पत्ति को कैसे बेचा जा रहा है। उन्होंने बताया कि इस मामले को भी वह कोर्ट में ले जाने वाले हैं।

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