हरिद्वार। श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन के म.म. स्वामी शिवानंद महाराज ने शनिवार को प्रेस वार्ता में अखाड़े के कोठारी महंत मोहन दास महाराज के लापता होने में अखाड़े के संतों की साजिश और संतों के खिलाफ षडयंत्र में वेश्याओं का सहारा लेने का अखाड़ों के संतों पर आरोप लगाकर संत समाज पर एक बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है। जो आरोप म.म. स्वामी शिवानंद महाराज ने लगाएं हैं वह न केवल सभ्य समाज, बल्कि संत समाज के लिए अधिक विचारणीय हैं। यदि ऐसा है तो, जो संतों के प्रति करोड़ों लोगों की आस्था है, उस पर यह कुठाराघात है।
कोई आम व्यक्ति यदि इस प्रकार के आरोप लगाए तो एक बार उसकी अनदेखी की जा सकती है, किन्तु इस बार आरोप अखाड़े के महामण्डलेश्वर ने लगाए हैं। इतना ही नहीं संत भेष धारण कर सम्पत्ति पर कब्जा करना, गुण्डागर्दी करना, 5 से 6 हजार रुपये मासिक आय होने पर संतों का करोड़ों की गाड़ियों में घूमना, संत होने के बाद भी परिवार बनाना, ये ऐसे आरोप हैं जिनका संज्ञान लेकर कार्यवाही की जानी चाहिए।
वर्तमान में संत समाज के जो हालात है, वह किसी से छिपे नहीं हैं। दिन प्रतिदिन संतों में ह्ास देखने को मिल रहा है। ऐसे में अखाड़ा परिषदों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। साथ ही सनातन की रक्षा के लिए संतों द्वारा बनाए गए संगठनों की भी जवाबदेही बनती है। संगठन की आड़ लेकर केवल धन एकत्रित करने मात्र के उद्देश्य को दरकिनार कर इन आरोपों पर संत समाज को विचार करना चाहिए, जो आरोप एक महामण्डलेश्वर ने लगाए हैं।
वहीं महामण्डलेश्वर स्वामी शिवानंद का कहना है कि वह अखाड़े में पैसे देकर महामण्डलेश्वर नहीं बने हैं, बल्कि शास्त्रार्थ के द्वारा उन्होंने इस पद को प्राप्त किया है। यदि ऐसा है तो उनकी बातों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जबकि महामण्डलेश्वर बनने की एक-दो अखाड़ों को छोड़ दें तो क्या प्रक्रिया है, यह किसी से छिपी नहीं हैं। लाखों खर्च कर एक मण्डलेश्वर बना दिया जाता है। पैसे के आगे न तो उसकी योग्यता देखी जाती है और न ही उसका इतिहास जानने की कोशिश की जाती है। कह सकते हैं कि यदि चढ़ावा ठीक-ठाक हो तो चार पैरों वाले को भी ये मण्डलेश्वर बना सकते हैं।
आज भी समाज में कई ऐसे संत का चोला धारण कर बैठे हुए हैं, जिन पर गंभीर आरोप हैं और आपराधिक प्रवृत्ति के हैं। फर्जी पदवी धारण किए बैठे हैं और लोगों को उपदेश करते हैं।
कुल मिलाकर धर्म के स्थान पर वेश्याओं को बैशाखी बनाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करना सबसे बड़ा अधर्म हैं। यदि कुछ संत वेश्याओं का पालने करते हैं तो वह कैसे बिना भोग भोगे रह सकते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जो खुद पतित होगा वह कैसे समाज का भला कर सकता है।


