गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः
सनातन काल से ही इस देश में तंत्र को ज्ञान कर्म और उपासना का स्रोत समझा जाता रहा है। तंत्रों के बारे में जो अनेक भ्रम और धारणाएं फैली हैं। इसमें तंत्र परंपरा का दोष नहीं वरन उन छदम कथित तांत्रिकों का दोष है। जो बिना तंत्रज्ञान के ही तांत्रिक बन गए। ऐसे ही लोगों द्वारा तंत्र मंत्र के नाम पर पूजा पाठ की आड़ में व्यभिचार भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देकर जनमानस को तंत्र के नाम पर भयभीत किया जाता है। तंत्र जगत में इन्हीं लोगों द्वारा पंच मकार की भी गलत व्याख्या कर दुष्प्रचार किया गया। वास्तव में पवित्र पंच मकार क्या है। मैंने दुर्लभ प्राचीन ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इस लेख माला को लिखा है। आशा है आप पंच मकार के रहस्य को समझेंगे।
सनातन काल से ही इस देश में तंत्र ज्ञान, कर्म और उपासना का स्रोत समझा जाता रहा है। देश, काल, समाज और मानव संस्कृति से बराबर प्रभावित होने वाली तांत्रिक परम्परा अत्यन्त उन्नत स्थिति को प्राप्त हुई–इसमें सन्देह नहीं। तंत्रों के बारे में जो अनेक भ्रम और गलत धारणाएं फैली हुई हैं, उनमें तंत्र-परम्परा का दोष नहीं है, वरन उन तांत्रिकों का दोष है जो बिना आस्था और श्रद्धा के ही तांत्रिक बन गए। तंत्र के प्रति अज्ञानता का लाभ उठाकर ऐसे लोग जन-साधारण की दुर्बलता से तन्त्र-मन्त्र के नाम पर फायदा उठाने का प्रयत्न करते रहे हैं। ऐसे ही लोगों के द्वारा तंत्र के नाम पर पूजा-पाठ की आड़ में व्यभिचार, भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन दिया गया। जन-मानस में इसका गंभीर प्रभाव पड़ा। लोगों ने यह समझ लिया कि तांत्रिक क्रियाओं और उपासनाओं के नाम पर वासना की तृप्ति ही मात्र तन्त्र का उद्देश्य है। रति-क्रिया, मदिरापान आदि की तुष्टि का एकमात्र साधन है-तांत्रिक साधना। लेकिन यह धारणा अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है। तांत्रिक साधना में जिन गोपनीय क्रियाओं और सामग्रियों के उपयोग की अनुमति विशेष् परिस्थिति में दे रखी है–उनका दुरुपयोग हुआ है। लेकिन उससे तन्त्र और उसकी साधना कदापि दूषित नहीं हो सकती। तांत्रिक साधना अत्यन्त गम्भीर और उच्च आध्यात्मिक साधना है।
तन्त्र शब्द की व्युत्पत्ति श्तनुश् धातु से हुई है जिसका अर्थ है-विस्तार करना
’तनोति विस्तारयति ज्ञानं येन यस्मात् वा तत् तन्त्रम्।श् अथवा–श्तन्यते विस्तारयते ज्ञानं अनेन इति तन्त्रम्।श्’
’अर्थात–जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार हो, उसे तंत्र कहते हैं।’
’तंत्र ज्ञान का विस्तार तो करता ही है, साथ-ही-साथ यह रक्षा भी करता है। इससे यह स्पष्ट है कि तन्त्र-साधक को आदिभौतिक, आदिदैविक और आध्यात्मिक– तीनों प्रकार के तापों से मुक्ति भी दिलाता है। वह भयमुक्त करता है।

’प्राचीन काल से ही अनेक देवगण तांत्रिक साधना के पथिक रहे हैं। शक्ति-साधना उनका आदर्श रहा है जिसका लक्ष्य है–महाशक्ति जगदम्बा की मातृरूप में उपासना। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, चंद्र, स्कन्द, वीरभद्र, लक्ष्मीश्वर, कामेश्वर, मन्मथ–ये सब श्रीमाता के उपासक थे। प्रसिद्ध ऋषियों में कोई-कोई तांत्रिक मार्ग के उपासक थे और कोई-कोई तो तांत्रिक मार्ग के प्रवर्तक भी थे। उनमें वृहस्पति, दधीचि, सनतकुमार, उशना, नकुमीश आदि का वर्णन आया है। जो प्रवर्तक ऋषि थे, उनमें दुर्वासा, गौतम, याज्ञवल्क्य, भृगु, कात्यायन, गालब, शतातप, आपस्तम्ब, सनक, विष्णुकश्यप, संवर्तविश्वामित्र आदि थे।’
’तंत्रविज्ञान में कौलमत का मुख्य लक्ष्य है–अद्वैत- लाभ जिसका आशय है–जीव-भाव से मुक्ति और परम निर्वाण, जो शरीर में स्थित शिव और शक्ति के मिलन से ही सम्भव है। यहाँ जिस मिलन या योग की बात की गयी है, वह है–कुण्डलिनी योग। समस्त योगों में यही एकमात्र योग है जो तंत्र के गुह्य आयामों पर आधारित है। इसीलिये इसे श्महायोगश् कहा गया है। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि जहाँ पातंजल योग समाप्त होता है, वहां से कुण्डलिनी योग आरम्भ होता है।’
’कुण्डलिनी योग साधना के मुख्य चार चरण हैं। प्रथम चरण में कुण्डलिनी-जागरण, दूसरे चरण में उसका उत्थान, तीसरे चरण में क्रमशः चक्र- भेदन और चौथे चरण में सहस्त्रार स्थित शिव के साथ शक्ति का श्सामरस्य महामिलनश्। इन चारों चरणों की साधना योग-तंत्र की बाह्य और आतंरिक क्रियाओं द्वारा संपन्न होती हैं।’
’कौलमत मुख्यतया दो भागों में विभक्त है–पूर्वकौल और उत्तरकौल। पूर्वकौल समायाचारी साधना-मार्ग है और उत्तरकौल है वामाचारी साधना-मार्ग। दोनों मार्गों में शक्ति की प्रतीक श्योनिश् की पूजा है।’ ’कौलमतावलम्बियों का कहना है-’
श्योनिपूजाम बिना पूजा कृतमप्यकृतं भवेत।’
’अर्थात-योनिपूजा के बिना की गयी कोई भी पूजा, पूजा ही नहीं है। लेकिन पूर्वकौल मतावलम्बी और अनुयायी श्रीयंत्र ( योनि )की पूजा करते हैं। उत्तरकौल के मत के अनुयायी प्रत्यक्ष योनि के उपासक होते हैं। दोनों मार्ग की साधना का आधार पञ्चमकार है। पहले में वह प्रतीक रूप में है और दूसरे में है प्रत्यक्ष रूप में।
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