गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः
सनातन काल से ही इस देश में तंत्र को ज्ञान कर्म और उपासना का स्रोत समझा जाता रहा है। तंत्रों के बारे में जो अनेक भ्रम और धारणाएं फैली हैं। इसमें तंत्र परंपरा का दोष नहीं वरन उन छदम कथित तांत्रिकों का दोष है। जो बिना तंत्र ज्ञान के ही तांत्रिक बन गए। ऐसे ही लोगों द्वारा तंत्र मंत्र के नाम पर पूजा पाठ की आड़ में व्यभिचार भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देकर जनमानस को तंत्र के नाम पर भयभीत किया जाता है। तंत्र जगत में इन्हीं लोगों द्वारा पंच मकार की भी गलत व्याख्या कर दुष्प्रचार किया गया ।वास्तव में पवित्र पंच मकार क्या है। मैंने दुर्लभ प्राचीन ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इस लेख माला को लिखा है। आशा है आप पंच मकार के रहस्य को समझेंगे।
क्या सच में पञ्च मकारों जैसे भौतिक तत्वों का प्रयोग साधना में करना चाहिए ? क्या ऐसा करना उचित है ? इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है। यदि ये पांचों श्मादितत्वश् भौतिक ही हैं तो इनके प्रत्येक के साथ गोपनीय और रहस्यमय शब्द क्यों लगाये गए हैं और यदि इनका अर्थ सामान्य अर्थ में किया गया है तो इस मार्ग पर चलना अत्यन्त कठिन क्यों कहा गया है ? आइये श्कुलार्णव तंत्रश् में देखें क्या कहा गया है इस सम्बन्ध में ?
’मद्य पानेन मनुजो यदि सिद्धिम् लभेत् वै।
’मद्यपानरताः सर्वे सिद्धिं गच्छन्तु पामराः।।
’मासं भक्षणमात्रेण यदि पुण्यागतिर्भवेत् ।
’लोके मासाशिनः सर्वे पुण्यभाजो भवन्ति हि।।
’स्त्रीसंभोगेन देवेशि यदि मोक्षो भवेत् हि।
’सर्वे$पि जंतवो लोकेक मुक्तारू स्युरू स्त्रीनिषेवनात।।
अर्थात-यदि मदिरा पान करने से मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होने लगे तो फिर मदिरा सेवन करने वाले सभी गवांर सिद्धि को प्राप्त कर ही लेंगे। यदि मांस भक्षण करने से ही लोगों की पुण्यगति हो जाये तो इस लोक में सभी मांसाहारी पुण्य के भागी हो जायेंगे। इसी प्रकार से स्त्री के साथ सम्भोग-क्रिया करने से किसी को भी मोक्ष प्राप्त होता हो तो इस संसार में कोई ऐसा जीव या प्राणी नहीं रहेगा जिसको मोक्ष उपलब्ध् न हो जाये।

इस प्रकार कुलार्णव तंत्र में स्पष्ट उल्लेख होने के कारण हमें यह मानना पड़ेगा ये पञ्च मकार कोई भौतिक तत्व न होकर किसी आतंरिक तथ्य की ओर संकेत करते हैं। ये आतंरिक तथ्य पूर्णतया यौगिक और रहस्यमय हैं।
1- मद्य (मदिरा) इन पञ्च मकारों में सबसे पहले मद्य का नाम् आता है जो साधारण मदिरा न होकर उससे करोड़ों गुना अधिक आनंद प्रदान करने वाला होता है। इसमें प्रत्यक्ष मदिरा का कोई स्थान नहीं है।
’सुरादर्शनमात्रेण कुर्यात् सूर्यावलोकनम।
’तत्संधानमात्रेण प्राणायामत्रयं चरेत।।
अर्थात-इस मद्य (सुरा) का तात्पर्य ब्रह्मरंध्र में स्थित सहस्त्र दलकमल से अनवरत निरूस्यन्दमान अमृत से है। इस मद्य के सेवन की बात छोडि़ए, मात्र दर्शन से ही सूर्य मण्डल का अवलोकन होता है और इसके सेवन करने से साधक के प्राणों का विस्तार हो जाता है और वह सूर्यलोक में संचरण करने लग जाता है। इसलिए साधक को इसी सुधारूपी मद्य से अपने पात्र को भरना चाहिए। यह मद्य गुरु-कृपा से देवता को प्रसन्न करने के लिए साधक को प्राप्त होता है जिसका पान उसे अविचलित मन से करना चाहिए।’
इस मद्य के आनन्द में इच्छा-शक्ति पाने में, ज्ञान-शक्ति स्वाद में, क्रिया-शक्ति उल्लास में पराशक्ति का निवास रहता है। यह मद्य मायाजाल का नाश करता है, मोक्षमार्ग का निरूपण करता है। सभी प्रकार के दुःखों का शमन करता है। इस मद्य का पान योगी लोग ही कर सकते हैं। हमें चाहिए कि ऐसे शराबी का हम उपहास न करें। साथ ही साधक को भी चाहिए कि वह अपने किसी भी चक्र के रहस्यमय आनंद को कभी बाहर प्रकट न करे। संयमी साधक इस चक्र में स्थित होकर अपने कुल देवता का स्मरण करे। इस चक्र में स्थित आनंद का वर्णन कुलार्णव तंत्र करता है’
’दिव्यपानरतानां वै यत्सुखम कुलयोगिनाम।
’तत्सुखं सार्वभौमस्य नृपस्यापि न विद्यते।।
अर्थात- दिव्य मद्य-पान करने में रत योगियों का आनंद निश्चय ही चक्रवर्ती सम्राट को भी उपलब्ध् नहीं हो पाता।
शेष आगे के लेख भाग 5 में पढ़ें…………