जो घी 1 साल या उससे अधिक समय तक रखा जाता है, उसे पुराण घृत कहते हैं और ग्रंथों में इसे महा औषधि और महा गुणकारी कहा गया है।
बहुत पुराना घी कभी-कभी “महाघृत” कहलाता है और औषधि में दुर्लभ माना जाता है।आइए जानते हैं पुराण घृत के प्रकार, लाभ और औषधीय गुण;
घी जितना पुराना, उतना ही शक्तिशाली औषधीय रूप
शास्त्रीय आधार
सुश्रुत संहिता (सूत्रस्थान 45/107-109):
“मदापस्मारमूच्छायशिरःकणाक्षियोनिजान् । पुराण जयति व्याधीन् व्रणशधिनरपिणम् ॥”
भावार्थः
पुराना घी मदपानजन्य विकार (हैंगओवर), अपस्मार, मूर्च्छा, सिर-कान-नेत्र-स्त्रीरोगों का नाश करता है। यह घावों को शुद्ध करता है और भरने में सहायक होता है।
नामभेद (काल के अनुसार)
आयुर्वेदाचार्यों ने घी की आयु के अनुसार इसके नाम भेद किए हैं:
पुराणघृत
1 वर्ष से अधिक पुराना
कुम्भसर्पि
10-15 वर्ष पुराना
महाघृत
100-115 वर्ष से अधिक पुराना
महाघृत – केवल औषधोपयोगी, आहार में प्रयोग नहीं।
स्वरूप व लक्षण
वर्ण (रंग): समय के साथ पीला → भूरा→ मोम जैसा
गन्धः विशिष्ट, तीव्र, औषधीय
गुणः स्निग्ध, गुरु, रोगनाशक
स्थितिः सामान्य आहार योग्य नहीं, केवल औषधि के रूप में प्रयोग
चिकित्सीय प्रयोग
सन्निपात ज्वरः
ब्रह्मरन्ध्र (सिर के मध्य) पर रखा जाता है।
श्वास व कास(Asthma/Bronchitis):
छाती, पसलियों व गले पर मलते हैं।
स्त्रीरोगः
योनि विकारों में विशेष रूप से उपयोग।
अपस्मार व मूर्च्छाः
मस्तिष्क व तंत्रिका विकारों में सहायक।
व्रण चिकित्साः
घावों को शुद्ध कर शीघ्र भरने में सहायक।
विशिष्ट रोगों में उपयोग
मदात्यय (Hangover): मद्यपान से उत्पन्न विकार में लाभकारी।
सिर व कान रोगः
पुराने कान व सिरदर्द रोगों को शांत करता है।
नेत्र रोगः
कुछ विशेष नेत्र विकारों में औषधीय प्रक्रिया हेतु ।
योनि रोगः
गर्भाशय व स्त्रीरोगों में आयुर्वेदाचार्यों द्वारा प्रयुक्त।
ऐतिहासिक महत्व
प्राचीन भारत में पुराणघृत एक दुर्लभ औषधि माना जाता था। यह सामान्य घरों में नहीं मिलता था। केवल राजपरिवारों, बड़े घरानों और वैद्य के पास संग्रहित रहता था। इसे कुम्भों में बंद कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी संजोया जाता था। पुराने समय में यह घी वैद्य परंपरा का सबसे मूल्यवान संग्रह माना जाता था।
आधुनिक दृष्टि
विज्ञान की दृष्टि सेः
समय के साथ घी में लिपिड ऑक्सीडेशन, शॉर्ट-चेन फैटी एसिड्स और विशिष्ट बायो-एक्टिव कंपाउंड्स बनते हैं। ये कंपाउंड्स शरीर में रोगनाशक, तंत्रिकाशामक और घाव-रोपण प्रभाव दिखाते हैं। भोजन में यह पचता नहीं, बल्कि केवल औषधीय प्रयोग हेतु उपयुक्त रहता है।
क्यों विशेष है पुराणघृत?
क्योंकि यह साधारण घी से कहीं अधिक औषधीय शक्ति रखता है। न सिर्फ शरीर पर लगाया जाता है, बल्कि रोगानुसार आन्तरिक उपयोग भी किया जाता था (वैद्य की देखरेख में)। इसकी दुर्लभता और प्रभावशीलता ने इसे आयुर्वेदिक रत्न बना दिया। पुराणघृत रोगनाशक और जीवनरक्षक है। इसे सदैव योग्य मार्गदर्शन में ही प्रयोग करें। और जानिए आयुर्वेद व रसशास्त्र के रहस्य पुराणघृत केवल एक भोजन नहीं, बल्कि समय की कसौटी पर खरा उतरा औषधीय रत्न है।
“जितना पुराना घी, उतना प्रबल उसका औषधीय प्रभाव।
Dr. (Vaidhya) Deepak Kumar
Adarsh Ayurvedic Pharmacy
Kankhal Hardwar
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