संतों के बीच बढ़ती रार से संत और सनातन को हो रही हानि

एक-दूसरे को मात देने पर हुए उतारू, अब नोटिस का खेल हुआ शुरू
हरिद्वार।
अर्द्ध कुंभ को कुंभ कहने और अखाड़ा परिषद के वर्चस्व को लेकर संतों के खेमों में खींची तलवारें व वाक युद्ध, अब किसी निर्णय पर ही जाकर समाप्त होने के आसार बन गए हैं। अभी तक तो वाक युद्ध जारी था, किन्तु अब नोटिस देने का खेल भी आरम्भ हो चुका है। ऐसे में यदि मामला अदालत तक पहुंचता है तो इससे संतों के बीच द्वेष की खाई और गहरायेगी। यह न तो संत समाज के लिए उचित होगा और न ही सनातन धर्म के लिए। अर्द्ध कुंभ का तो बंटाधार होने के आसार इन सबके कारण दिखायी देने लगे हैं।


उल्लेखनीय है कि श्रीमहंत नरेन्द्र गिरि महाराज के ब्रह्मलीन होने के बाद से ही अखाड़ा परिषद दो फाड़ है। दोनों ही गुट बहुमत का दावा करते हैं। प्रयागराज कुंभ में परिषद के दो गुटों के बीच हुए विवाद ने आग में घी डालने का काम किया। जिससे विवाद की खाई और गहरा गयी।


अब अर्द्ध कुंभ को कुंभ कहने, अखाड़ा परिषदों के अस्तित्व पर सवाल उठाने के बाद संतों के बीच वाक युद्ध शुरू हो गया। संतों के बीच हो रही बयानबाजी को हवा देने के लिए तीसरे पक्ष ने भी अपनी भूमिका निभायी, जिससे वाकयुद्ध और बढ़ गया। उदासीन पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन के कोठरी महंत राघवेन्द्र दास और कारोबारी महंत सुर्याशं मुनि के स्वामी रूपेन्द्र प्रकाश महाराज के बयान के समर्थन में आने से इस विवाद का और हवा मिल गयी।


अभी तक कोठारी महंत मोहन दास महाराज के लापता होने पर संतों के बीच सवाल उठते रहे, किन्तु अब बड़ा उदासीन अखाड़े के तीन संतों श्रीमहंत रघुमुनि, श्रीमहन्त अग्रदास सचिव व कोठारी श्री महन्त दामोदार दास के निष्कासन का मामला भी वाक युद्ध के बीच पुनः उभर आया है। अब तीनों संतों के निष्कासन को गलत ठहराते हुए एड़. अरूण भदौरिया ने कानूनी नोटिस भेजकर जवाब मांगा है किस आधार पर उनका निष्कासन किया गया, जिससे संतों के बीच विवाद और बढ़ने की संभावना है।


वहीं वाक युद्ध के दौरान अपने बयान में निरंजनी अखाड़े के सचिव व श्रीमहंत रविन्द्र पुरी महाराज ने कहा था कि कोई भी दूध का धूला नहीं है। कमियां सभी में हैं। इन हालातों में अब एक-दूसरे की कमियों को उजागर करने का सिलसिला शुरू हो सकता है। यदि ऐसा होता है तो कई बेनकाब होंगे और इससे संत समाज की गरिमा व सनातन को नुकसान के सिवाय और कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसके साथ ही जिस प्रकार संतों के बीच एका न हो वर्ष 1954 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सोच के कारण अखाड़ा परिषद का उदय हुआ, ठीक उसी प्रकार से यदि संतों के बीच रार न रूकी तो अब भी शासन-प्रशासन संतों की रार का फायदा उठाने में पीछे नहीं रहेगा। जिसका नुकसान केवल और केवल संत समाज का उठाना पड़ेगा।

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