सच्ची दिवाली – जब रावण (अहंकार) नष्ट हो जाए

आज दिवाली है। पर क्या कभी हमने यह सोचा है कि हम दिवाली क्यों मनाते हैं? कहा जाता है कि भगवान श्रीराम आज के दिन रावण का वध कर अयोध्या लौटे थे। अयोध्या वासियों ने उनके स्वागत में दीये जलाए, घर सजाए और आनंद मनाया। पर वो तो त्रेता युग की बात है—आज हम क्यों दीये जला रहे हैं, क्यों खुशियाँ मना रहे हैं? इस प्रश्न के उत्तर में ही छिपा है दिवाली का सच्चा अर्थ।

हर त्योहार का उद्देश्य हमें कोई संदेश देना होता है। दिवाली केवल बाहरी उत्सव नहीं, बल्कि भीतर के अंधकार पर विजय का प्रतीक है। श्रीराम का अयोध्या लौटना केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि यह संकेत है कि जब भीतर का रावण—अहंकार, अभिमान और ‘मैं’ की भावना—नष्ट होता है, तभी भगवान राम हमारे ‘घर’, यानी हमारे शरीर और चेतना में प्रवेश करते हैं।

मुख्य संदेश यह है कि अहंकार पर विजय हो जाए तो राम जी घर आएँगे। कौन से घर? ईंट-पत्थर का नहीं, यह शरीर ही तेरा घर है। जब तक इस शरीर रूपी अयोध्या में रावण (अहंकार) जीवित है, तब तक श्रीराम भीतर नहीं बस सकते। जब भीतर रावण है, तो राम बाहर मूर्ति के रूप में हैं। और जब भीतर का रावण मर जाएगा, तब वही राम सूरत बनकर तेरे भीतर जाग जाएँगे।

कबीरदास जी ने कहा, “घड़ी एक बिसरूँ राम को, तो ब्रह्म-हत्या मोहे होए।” अर्थात, एक क्षण के लिए भी अगर मैं भगवान को भूल जाऊँ, तो मानो मैंने सत्य का ही गला घोंट दिया। आज जब हम दीये जला रहे हैं, तो यह सोचना आवश्यक है कि क्या भीतर का अंधकार मिटा? घर की सफाई हो गई, पर क्या मन की सफाई हुई? दीये जल गए, पर क्या भीतर का दीप भी प्रज्वलित हुआ? जब तक अहंकार का अंधकार भीतर फैला है, तब तक बाहर के दीयों की रोशनी केवल दिखावा है।

नवरात्रों में हमने “माता ज्योताँ वाली” की आराधना की, पर क्या भीतर की ज्योत जली? रावण मरा, पर क्या भीतर का रावण मरा—वह रावण जो कहता है, “मैं डॉक्टर हूँ, मैं अधिकारी हूँ, मैं मंत्री हूँ, मैं प्रसिद्ध हूँ, मैं अमीर हूँ”। जब तक यह ‘मैं’ जीवित है, तब तक राम नहीं आएँगे। और अगर जीवन इसी ‘मैं’ में बीत गया, तो मृत्यु के बाद वही रावण रूपी शरीर बाहर निकलेगा—जो पुनः जन्म और मृत्यु के चक्र में पड़ेगा। ऐसा जीवन सफल नहीं, व्यर्थ हो जाएगा।

जिस दिन भीतर का अहंकार मिटेगा, उसी दिन सच्ची दिवाली होगी। जब तक भीतर रावण है, तब तक राम नहीं आ सकते। आज हम लक्ष्मी पूजन करते हैं, पर सोचिए—क्या हम राम पूजन भी करते हैं? क्या हम अपने भीतर की अयोध्या को सजाते हैं? त्योहार मनाना गलत नहीं, लेकिन उसका सार न समझना सबसे बड़ा नुकसान है। त्रेता युग से लेकर कलियुग तक हम जन्म लेते रहे, मरते रहे, पर मुक्त नहीं हुए—क्योंकि भीतर का रावण अब तक जीवित है।

माया और आनंद जीवन के हिस्से हैं, पर अगर भीतर का दीप नहीं जला, तो सच्चा आनंद कभी नहीं मिलेगा। बाहरी दीप तो कुछ समय चमकते हैं, पर जो दीप भीतर जलता है, वह कभी नहीं बुझता। आज की दिवाली उस आंतरिक दीप के प्रज्ज्वलन का अवसर है। जिस दिन तेरे अहंकार का श्राद्ध हो जाएगा, श्रद्धा जन्म लेगी, भीतर की ज्योति प्रकट होगी, और उस क्षण सच्ची दिवाली होगी।

जब राम भीतर आ जाएँगे, तब हर दिन, हर पल, तेरे जीवन में दिवाली होगी। तब तू एक दिन के उत्सव का मोहताज नहीं रहेगा—तेरा जीवन ही प्रकाशमय बन जाएगा। इसलिए जागो, अभी से अपनी सच्ची दिवाली की तैयारी करो। हर दिन एक कदम भीतर की ओर बढ़ाओ। अगली दिवाली आने से पहले अपने भीतर की दिवाली मना लो, और फिर देखो—कितनी दिव्य, कितनी गहरी, कितनी उज्ज्वल होती है वह सच्ची दिवाली, जब राम साक्षात तेरे हृदय में प्रकट होते हैं।

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