सनातन धर्म में शंकराचार्य के पद को सर्वोच्च कहा गया है। यह सनातनियों के लिए मुकुट मणी के समान है। प्रत्येक सनातनी की इस पद के प्रति श्रद्धा भी है, किन्तु जिस प्रकार से इस पद की गरिमा को कलंकित करने का कार्य किया जा रहा है उससे ना केवल पद की गरिमा तार-तार होती दिखायी दे रही है, बल्कि इसके प्रति लोगों में आस्था भी कम होती जा रही है। और यह सनासन धर्म के लिए उचित भी प्रतीत नहीं होता। इसके लिए कोई विधर्मी नहीं वेकल सनातनी ही जिम्मेदार कहे जा सकते हैं।
भगवान आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए देश के चार भागों में चार मठों की स्थापना की थी। इन मठों के संचालन के लिए मठाम्नाय में नियमों का निर्धारण किया। इसके साथ ही उन्होंने नियम व उप नियम भी प्रतिपादित किए। इन नियमों में कहीं भी शंकराचार्य का पद उत्तराधिकार के आधार पर दिए जाने का उल्लेख नहीं है। शारदा-द्वारिका व ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज के महाप्रयाण के बाद शारदा-द्वारिका व ज्योतिष पीठ पर शंकराचार्यों की घोषणा कर दी गई। घोषणा के साथ मठाम्नाय को दरकिनार कर दिया गया। पीठों पर घोषणा के बाद तर्क दिया जा रहा है कि यह स्वामी स्वरूपानंद महाराज की मौखिक इच्छा थी। यदि ऐसा था तो कई बार स्वामी अविमुक्तेश्वरानद सरस्वती द्वारा स्ंवय को ज्योतिषपीठ का स्वंयभू शंकराचार्य घोषित किए जाने के बाद शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद महाराज उस पर आपत्ति नहीं जताते और ना ही उन्हें इस संबंध में विज्ञप्ति जारी करनी पड़ती। जबकि विद्वानों का मानना है कि शंकराचार्य पीठ उत्तराधिकार का विषय नहीं है। यह धर्म का विषय है। जिस पर पुरी और गोर्वधन पीठ के शंकराचार्य अपनी आपत्ति जता चुके हैं।
वहीं शंकराचार्य बनने के लिए शास्त्रार्थ जरूरी बताया गया है। इसके साथ शंकराचार्य बनने वाला व्यक्ति श्री विद्या का उपासक हो, चार विषयों मंें आचार्य हो, भाष्यकार हो तथा उसका बाल ब्रह्मचारी होना आवश्यक है। किन्तु स्थिति यह है कि सनातन के सर्वोच्च धर्म पद पर भी अब वसीयत और इच्छा के साथ पद की लोलुपता भारी पड़ने लगी है। यदि ऐसा ना होता तो वर्षों से ज्योतिष पीठ का मामला न्यायालय में ना होता। सत्यता तो यह भी है कि ज्योतिष पीठ गिरि नामा संन्यासियों की पीठ रही है। बावजूद इसके सरस्वती नामा का उस पर प्रभाव रहा।
हास्यास्प्रद यह कि वसीयत का दावा किया जा रहा है, किन्तु वसीयत को एक बार भी सार्वजनिक नहीं किया गया। एक समय था की समाज के बीच उत्पन्न हुए किसी भी विवाद का समाधान संत करते थे। संतों के बीच उत्पन्न हुए विवाद का समाधान श्ंाकराचार्य के द्वारा किया जाता था। किन्तु अब शंकराचार्य जैसी पीठ ही विवाद का विषय बन गई हो तो समाधान की उम्मीद कैसे और किससे की जा सकती है। आज गली-गली कुकुरमुत्तों की भांति शंकराचार्य उत्पन्न होने लगे हैं। स्थिति यह है की कोई किसी दल समर्थित शंकराचार्य है तो कोई किसी अन्य दल का समर्थक। जबकि शंकराचार्य समूचे सनातन धर्म का हुआ करते थे। आज दल विशेष की विचारधार के शंकराचार्यं होने से सनातन संस्कृति को नुकसान पहुंच रहा है।