भाग 7ः- तंत्र जगत का सबसे बड़ा रहस्य, पंच मकार क्या है

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः

सनातन काल से ही इस देश में तंत्र को ज्ञान कर्म और उपासना का स्रोत समझा जाता रहा है। तंत्रों के बारे में जो अनेक भ्रम और धारणाएं फैली हैं। इसमें तंत्र परंपरा का दोष नहीं वरन उन छदम कथित तांत्रिकों का दोष है। जो बिना तंत्र ज्ञान के ही तांत्रिक बन गए। ऐसे ही लोगों द्वारा तंत्र मंत्र के नाम पर पूजा पाठ की आड़ में व्यभिचार भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देकर जनमानस को तंत्र के नाम पर भयभीत किया जाता है। तंत्र जगत में इन्हीं लोगों द्वारा पंच मकार की भी गलत व्याख्या कर दुष्प्रचार किया गया ।वास्तव में पवित्र पंच मकार क्या है। मैंने दुर्लभ प्राचीन ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इस लेख माला को लिखा है। आशा है आप पंच मकार के रहस्य को समझेंगे।

Dr. Ramesh Khanna


वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद, दर्शन, इतिहास आदि सब कुछ पढ़ लेते हैं लोग। कंठस्थ भी कर लेते हैं। संतुष्ट भी हो जाते हैं। अपने आप को परम ज्ञानी भी समझने लगते हैं लोग। लेकिन रहते हैं पहले जैसे ही। उनका बाहरी व्यक्तित्व तो अवश्य बदल जाता है, लेकिन आतंरिक स्थिति पहले जैसी ही रहती है। उनका ज्ञान उनके आतंरिक स्वरूप को परिवर्तित नहीं कर पाता है। पहले ही जैसे रहते हैं वे लोग-क्रोधी, दंभी, अहंकारी, कपटी, ईर्ष्यालु, असत्यवादी। उपलब्ध ज्ञान के अनुसार उनका आचरण नहीं होता।
’लेकिन तंत्र ऐसा नहीं है। वह न वेद है, न शास्त्र है, न पुराण है, न उपनिषद है, न तो है कोई दर्शन ही। वह तो क्रियापरक विधि का प्रकृष्ट परम विज्ञान है। उसकी भाषा क्रिया की भाषा है और है विधि की भाषा। भौतिक विज्ञान की तरह देश-काल के अनुसार उसके नियम, सिद्धान्त, क्रिया और विधियां बदलती नहीं। हर युग में, हर काल में और हर अवस्था में एक-सी रहती हैं। इसीलिए वह प्रकृष्ट विज्ञान है। वह सर्वव्यापिनी महाशक्ति का विज्ञान है जिसकी उपयोगिता क्रिया में है, इसीलिए वह गुह्य और गोपनीय है।
’वेद और तंत्र भारतीय साधना-संस्कृति के मूल तत्व हैं। वेद परम ज्ञान है और तंत्र है-गुह्य ज्ञान। यह योग्य और संस्कार संपन्न लोगों के लिए है। शुभ संस्कार के उदय होने पर तंत्र में रूचि जाग्रत होती है। उच्च संस्कारों के उदय होने पर सद्गुरु के दर्शन होते हैं। उच्चतम संस्कार के जागने पर सद्गुरु के मार्गदर्शन से सिद्धि-लाभ होता है। फिर सिद्धि-लाभ के परे है-महाशक्ति के करुणामय अनुग्रह का उपलब्ध् होना। यह करुणामय अनुग्रह ही साधक की सबसे बड़ी परम संपत्ति है और यह परम संपत्ति ही परम कल्याणकारी है। सच तो यह है कि तब साधक स्वयम् माँ महामाया जगज्जननी का साकार रूप हो जाता है। वह खिला हुआ सुगन्धित पुष्प की तरह हो जाता है जिसकी सुगन्ध बराबर चारों ओर बिखरती ही रहती है।’
’मनुष्य अपनी जिज्ञासा लिए हुए हर जगह भटकता रहता है कि कब उसका समाधान हो। समाधान तभी सम्भव है जब मनुष्य में योग्यता होगी। योग्यता जाति, धर्म और संप्रदाय नहीं देखती। हम हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं। भीतर तो हम सभी एक हैं, समान हैं-वही क्रोध, वही घृणा, वही द्वेष, वही ईर्ष्या, वही हिन्सा, वही कामुकता और वही आक्रामकता। सभी में बराबर है। कहीं कोई अन्तर नहीं। जो वास्तविकता है, वह सभी जाति में, सभी धर्म में समान है। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई , जैन आदि जो भी लोग हैं, समान हैं। तंत्र के लिए जाति, धर्म, संप्रदाय अपना आवरण है। आवरण को वह कोई महत्त्व नहीं देता। तंत्र देखता है केवल और केवल योग्यता। हम जहाँ हैं, जिस स्थिति में हैं, एक अंधे के समान हैं और उसी अंधेपन को दूर करना ही तंत्र का काम है।’
’समस्त तंत्र शंकर और पार्वती के बीच संवाद है। पार्वती का प्रश्न और शंकर का उत्तर है। लेकिन वह संवाद अर्थपूर्ण है, साधरण गुरु-शिष्य के बीच का संवाद नहीं है। दो महान् प्रेमी-प्रेमिका के बीच का गहन और गम्भीर संवाद है, गहनतम प्रेम की भाषा है। प्रत्येक अक्षर प्रेममय है। इसकी भाषा आत्मा को स्पर्श करने वाली है।’
’तंत्र का कहना है कि शिष्य में प्रेम के साथ ग्राहकता भी होनी चाहिए, तभी विज्ञान प्रकाश में आता है। शिष्य के लिए स्त्री का होना आवश्यक नहीं लेकिन उसमें स्त्रैण ग्राहकता का भाव अवश्य होना चाहिए। पार्वती के प्रश्न का अर्थ ही है कि स्त्रैण भाव प्रश्न कर रहा है। स्त्रैण भाव का मतलब ही है ग्राहकता और समर्पण। प्रेम भी पूर्ण है। प्रेम में गंभीरता नहीं, निर्मलता और समर्पण होता है।’
’पुरुष और स्त्री के अस्तित्व पर यदि हम वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों है। कोई भी मनुष्य न मात्र पुरुष है और न तो मात्र स्त्री है। वह उभयलिंगी है। उसमें दोनों यौन हैं। शंकर का एक स्वरुप श्अर्धनारीश्वरश् है। भरतीय संस्कृति की यह गहन धारणा है। स्त्री भी न पूर्ण स्त्री है और न तो है पूर्ण पुरुष। इसीलिये पार्वती केवल प्रिया ही नहीं, पत्नी ही नहीं, शंकर की अर्धांगिनी भी हैं। जब तक शिष्य गुरु का अर्धांग नहीं बन जाता है, तब तक ज्ञान-विज्ञान की उच्च शिक्षा नहीं दी जा सकती। गुह्य विधियों के विषय में कुछ भी नहीं बतलाया जा सकता। जब तक हम ऐसा नहीं बनेंगे तब तक कोई सार्थक लाभ नहीं। मृत ज्ञान का भार ढोते रहेंगे हम जीवन भर और डूबे रहेंगे अहंकार के सागर में।’

           मैथुनः-

’तंत्र के कौलाचार में पांचवां और अंतिम मकार है-मैथुन। लेकिन यह होना चाहिए कि यह आधार भी विषयवासना को विनाश का प्रमुख कारण मानता है।

 केवलं विषयासक्तः पतत्येव न संशयः।
 आचार लांघनाद्देवि कौलिकः पतितो भवेत।।

’अर्थात-शंकर पार्वती से कह रहे है कि हे देवि ! वह व्यक्ति जो विषयों में ही केवल आसक्त होता है, उसका पतन होता है, इसमें कोई संशय नहीं है। जो कौलाचारी साधक अपने आचार का उल्लघन करता है, वह पतित हो जाता है।’
’तंत्र के अनुसार अत्यन्त मजबूत लोहे के पाशों से लोहा-लकड़ी आदि में बद्ध मनुष्य भी मुक्त हो सकता है, परंतु स्त्री, धन आदि में आसक्त मनुष्य कभी मुक्त नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, जितनी भी स्त्रियां हैं, सभी कौलाचारियों के लिए माँ के समान हैं। उनके मन में जरा भी विषय-विकार आने पर कुल योगिनियां उनका सर्वनाश कर देती हैं।

’या काचिदंगना लोके सा मातृकुलसंभवा।’

’कुप्यन्ति कुलयोगिन्यो बनितानांव्यतिक्रमात।।’
’समाज को इस प्रकार का अर्थ ग्रहण करने के लिए मजबूर किया इस आचार में वर्णित श्कुमारीं-पूजनश् प्रकरण ने जिसमें नवरात्र में कुमारी पूजन का कुलदेवी के सामने करने का विधान है। लेकिन वहीँ यह भी देखना आवश्यक है उस प्रसंग में कुमारी के लिए देवता बुद्धया शब्द कई बार दुहराया गया है। मैथुन पञ्च मकार के रहस्य को समझाते हुए तंत्र कहता है कि आत्मा और पराशक्ति के संयोग से उत्पन्न आनन्द के आस्वादन का नाम मैथुन है। इसके विपरीत अर्थ का प्रयोग करने वाले मात्र श्स्त्री सेवकश् हैं, कौलाचारी नहीं।

पर शक्त्यात्ममिथुन सन्योगानंदनिर्भरः।’
’य आस्ते मैथुनं तत्स्यादपरे स्त्रिनिषेवकाः।।’

’यह सिद्धि बिना विषय-वासना पर विजय प्राप्त किये हो ही नहीं सकती। काम-वासना को जीतना परम आवश्यक माना गया है। इसलिए तो युवती स्त्री को श्निर्विकार चित्तेनश् पूजा करने का विधान है। सहस्त्रार में स्थित शिव और कुंडलिंनी अथवा प्राण और सुषुम्ना का मिलन का नाम ही श्मैथुनश् है। शास्त्रों के निर्देश को ताख पर रखकर जो साधक अनैतिक आचरण करता है, उसे सिद्धि तो दूर की बात रही, नरक गामी बनना पड़ता है।’
’इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कौलाचार के ये पांचों मकार अंतर्याग से सम्बंधित हैं। इनको भौतिक अर्थ में ग्रहण करना भारी भूल है।
तंत्र साहित्य का क्षेत्र बहुत विकसित है। मैंने 7 भागों में पंच मकार के रहस्यों की विस्तृत व्याख्या विजयतंत्र शकुलावर्ण तंत्र कुलावर्ण तंत्र जैसे दुर्लभ हस्तलिखित ग्रंथों के अध्ययन के बाद लिखी है। आशा है आप इसको संग्रह करके रखेंगे और इसका लाभ उठाएंगे।
डॉ. रमेश खन्ना

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