पता नहीं इसको सत्यानाशी क्यों कहा जाता है, जबकि आयुर्वेदिक ग्रंथ भावप्रकाश निघण्टु में इस वनस्पति को स्वर्णक्षीरी या कटुपर्णी जैसे सुंदर नामों से सम्बोधित किया गया है।
गुण:-
यह दस्तावर, कड़वी, भेदक, ग्लानिकारक तथा कृमि, खुजली, विष, अफारा, कफ, पित्त, रुधिर और कोढ़ को दूर करती है।
परिचय:
यह कांटों से भरा हुआ, लगभग 2-3 फीट ऊंचा और वर्षाकाल तथा शीतकाल में पोखरों, तलैयों और खाइयों के किनारे लगा पाया जाने वाला पौधा होता है। इसका फूल पीला और पांच-सात पंखुड़ी वाला होता है। इसके बीज राई जैसे और संख्या में अनेक होते हैं। इसके पत्तों व फूलों से पीले रंग का दूध निकलता है, इसलिए इसे स्वर्णक्षीरी यानी सुनहरे रंग के दूध वाली कहते हैं।
उपयोग:-
इसकी जड़, बीज, दूध और तेल को उपयोग में लिया जाता है। इसका प्रमुख योग स्वर्णक्षीरी तेल के नाम से बनाया जाता है। यह तेल सत्यानाशी के पंचांग (सम्पूर्ण पौधे) से ही बनाया जाता है। इस तेल की यह विशेषता है कि यह किसी भी प्रकार के व्रण (घाव) को भरकर ठीक कर देता है।
व्रणकुठार तेल
निर्माण विधि:-
इसका पौधा सावधानीपूर्वक कांटों से बचाव करते हुए, जड़ समेत उखाड़ लाएं। इसे पानी में धोकर साफ कर निकाल लें। जितना रस हो, उससे चौथाई भाग अच्छा शुद्ध सरसों का तेल मिला लें और मंदी आंच पर रखकर पकाएं। जब रस जल जाए, सिर्फ तेल बचे तब उतारकर ठंडा कर लें और शीशी में भर लें। यह व्रणकुठार तेल है।
प्रयोग विधि:-
जख्म (घाव) को नीम के पानी से धोकर साफ कर लें। साफ रूई को तेल में डुबोकर तेल घाव पर लगाएं। यदि घाव बड़ा हो, बहुत पुराना हो तो रूई को घाव पर रखकर पट्टी बांध दें। कुछ दिनों में घाव भर कर ठीक हो जाएगा।
Dr.(Vaid) Deepak Kumar
Adarsh Ayurvedic Pharmacy
Kankhal Hardwar
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