2014 से यूक्रेन और रूस के बीच तनाव बढ़ रहा है, जिसको लेकर क्रेमलिन और वाशिंगटन के बीच हमेशा से रहे तनाव में और तेजी आयी। ऐसी परिस्थति शीत युद्ध के दौरान भी देखने को मिलती थी 1990 का दशक वापस आ गया है। मौलिक आधार पर देखा जाए तो ये युद्ध जेलेन्स्की द्वारा भड़कावे में आने से भी हुआ है। महज ये कह देना की पुतिन ने अपनी देश भक्ति को ही जरिया बनाया या गुस्से में आकर ये कदम उठाया गलत होगा। वहीं पश्चिमी मीडिया पुतिन को अशिष्ट और उनकी तुलना नाजियों से करना भी गलत है। अमेरिका जहां इस बे फिजूल की जंग पर तालियां बटोर रहा है वहीं कोई उनसे पूछे की उन्होंने कितने देश जैसे इराक, अफगानिस्तान और वियतनाम में बुरी हार देखी है, वो भी बिना किसी वजह के दूसरे देश में युद्ध। यूक्रेन की बात की जाए तो सामरिक दृष्टि से रूस को सभी यूरोपियन देशों को ये आश्वासन देना था की उनके देश की सुरक्षा का पूरा ध्यान दिया जायेगा। पर यूरोपियन देशों या अमेरिका से इस बात की पुष्टि लेना की आप सुरक्षित है बेईमानी होगी क्यूंकि न ही नाटो और न ही अमेरिका विश्व शांति स्थापना आज तक कहीं कर पाए हैं। वो सिर्फ कर पाए हैं तो कईं देशों की आंतरिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न इसके कई उदहारण इतिहास में मिल जाएंगे। अमेरिका की वहीं स्थिति है की 100 चूहे खाकर बिल्ली चली हज को।
सोवियत संघ के पतन के बाद, नाटो ने पूर्व की ओर विस्तार किया, अंततः अधिकांश यूरोपीय देशों को अपने कब्जे में ले लिया जो कम्युनिस्ट क्षेत्र में थे। लिथुआनिया, लातविया और एस्टोनिया के बाल्टिक गणराज्य, एक बार सोवियत संघ के हिस्से, नाटो में शामिल हो गए, जैसा कि पोलैंड, रोमानिया और अन्य ने किया था।
नतीजतन, नाटो सैकड़ों मील की दूरी पर मास्को के करीब चला गया, सीधे रूस की सीमा से लगा। और 2008 में, उसने कहा कि उसने योजना बनाई-किसी दिन-यूक्रेन को नामांकित करने के लिए, हालांकि इसे अभी भी एक दूर की संभावना के रूप में देखा जाता है।
रूस ने दिसंबर में नाटो और संयुक्त राज्य अमेरिका को लिखित मांगों के एक सेट के साथ प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया था कि इसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक थे। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण इस बात की गारंटी है कि यूक्रेन कभी भी नाटो में शामिल नहीं होगा कि नाटो पूर्वी यूरोपीय देशों में अपनी सेना को कम करेगा जो पहले ही शामिल हो चुके हैं, परन्तु उनकी इस मांग को सिरे से खारिज किया गया और उनको भड़काने के लिए प्रतिबंधों की धमकी दी गयी जो पुतिन बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।
पुतिन ने सोवियत विघटन को एक ऐसी तबाही के रूप में वर्णित किया है जिसने रूस को दुनिया की महान शक्तियों के बीच उसका सही स्थान छीन लिया और उसे पश्चिम की दया पर डाल दिया। उन्होंने पिछले 20 सालों में रूस की सेना के पुनर्निर्माण और उसके भू-राजनीतिक दबदबे को फिर से मजबूत करने के लिए बहुत कार्य किये हैं जिसमें भारत और चीन के साथ कूटनीतिक संबंध भी शामिल हैं। भारत और चीन के साथ दोस्ती रूस को हर तरह से मजबूत बनती है और वो रूस और चीन से यही अपेक्षा करता आ रहा है की रूस कभी युद्ध पर जाए तो दोनों देश साथ ना भी दें तो न्यूट्रल बने रहे। इससे भारत और चीन अलग थलग भी नहीं होंगे और उनके बाकी देशों के साथ संबंधो पर खास फर्क नहीं पड़ेगा। बशर्ते चीन ताइवान पर कोई एक्शन ना ले और भारत कश्मीर मुद्दे पर शांत रहे। यूक्रेन के खिलाफ युद्ध कई मायनो में विश्व की नई व्यवस्था की शुरुआत मानी जा रही है जिसमंे रूस एक मुख्य शक्ति बनने की कोशिश कर रहा है। विशषज्ञों का माने तो ये युद्ध कोरोना के कारण टला हुआ था। क्रेमलिन को ये मालूम था की अमेरिका या कोई भी पश्चिमी देश कोरोना के एकदम बाद युद्ध पर नहीं जायेगा, क्यूंकि इसका खासा असर अभी भी यूरोपियन देशांे पर और उनकी आंतरिक अर्थव्यवस्था पर दिखाई दे रहा है। जो देश रूस के साथ यूनाइटेड नेशंस की वोटिंग में खुल कर सामने आएं हैं जिनमंे नार्थ कोरिया और बेलारूस मुख्य है उनका एजेंडा अमेरिका और बाकि देशों को ये दिखने का है की रूस इसमें अकेले नहीं है। बेलारूस को राष्ट्रपति पुतिन कभी अलग मानते ही नहीं थे। सोवियत संघ के पूर्व के जी बी जासूस रहे पुतिन रूस को 1990 से पहले और 1970 के मजबूत रूस को देखना चाहते हैं। जिसके लिए उन्होंने पिछले कई वर्षो में रूस को आत्मनिर्भर बनाने की और पश्चिमी देशों की कमजोरी गैस आपूर्ति पर अपना नियंत्रण करने की पुरजोर कोशिश भी की है और इसमें सफल भी हुए हैं। रही बात सैंक्शंस लगाने की तो क्रिमीआ को जितने के बाद पुतिन 2014 से ही इसकी तैयारी में लगे हुए थे।
अगर यह स्विफ्ट से कट जाता है तो मॉस्को में सरकार ने भी अंतरराष्ट्रीय भुगतान की अपनी प्रणाली बनाने के लिए प्रारंभिक कदम उठाए हैं और उसके तहत एक वैश्विक वित्तीय संदेश सेवा बनायी जो प्रमुख पश्चिमी केंद्रीय बैंकों की देखरेख करती है। भारत ने भी पिछले कई सालों में डिजिटल इंडिया के नाम से खुद को प्रौद्योगिकी में रूपए कार्ड और यूपीआई पेमेंट सर्विस बना कर पश्चिमी देशों के वीसा और मास्टर कार्ड पर अपनी निर्भरता कम करी है। वहीं नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन को होल्ड पर रखने का जर्मनी का निर्णय रूस के लिए हानिकारक है, लेकिन इसका पश्चिमी यूरोप में भी ऊर्जा की कीमतों पर सीधा प्रभाव पड़ेगा और यदि गैस आपूर्ति कतर से होती भी है तो इसमें कई महीने लग सकते हैं जो यूरोपियन देश वहन नहीं कर पाएंगे। देखना ये होगा की सयुंक्त राष्ट्र में रोज हो रही मीटिंग और रूस पर नए नए सैंक्शन से रूस पर क्या फर्क पड़ता है और क्या ये बहुत होगा की रूस को रोका जाए ? क्या जेलेन्स्की को रूस के खिलाफ भाषण और नाटो अमेरिका के अस्पष्ट सहयोग से बचना चाहिए था ? क्यूंकि समझौता और बातचीत ही एकमात्र इसका कारगर समाधान होगा जिस पर भारत शुरू से ही जोर दे रहा है। भारत ने यूक्रेन विवाद पर अपना स्थिति स्पष्ट की है की वो भारतीय नागरिकों की सुरक्षित वापसी और बातचीत चाहता है साथ ही युद्ध तुरंत रुकना चाहिए और शांति स्थापना होनी चाहिए, पर ये तरीका कब तक अपना सकते है ये देखना होगा द्य साथ ही नयी दिल्ली को अब मिलिट्री प्रणाली और रक्षा मसौदों में रूस के साथ अपनी भागीदारी के भविष्य को लेकर गंभीरता से सोचना चाहिए और क्वाड देशों (जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका )पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। हालांकि भारत के कई मुद्दों पर पश्चिमी देश अस्पष्ट रहे हैं, पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने दोनों कार्यकालों में अब तक सभी देशों में जाकर भारत के रिश्ते 1965 के बाद सबसे मजबूत किये हैं। जिसमे फ्रांस, जर्मनी, इजराइल आदि देशों के साथ किये गए व्यावसायिक समझौते और सैन्य उपकरण समझौते शामिल हैं। देखना ये भी होगा की आने वाले दिनों में भारत क्या कूटनीति अपनाता है।
डॉ. मिहिर जोशी
लेखक गुरुकुल विवि में प्रबंधन सलाहकार और सहायक प्रोफेसर हैं

यूक्रेन तनाव और तांडव


