भाग 6ः- तंत्र जगत का सबसे बड़ा रहस्य, पंच मकार क्या है

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः

सनातन काल से ही इस देश में तंत्र को ज्ञान कर्म और उपासना का स्रोत समझा जाता रहा है। तंत्रों के बारे में जो अनेक भ्रम और धारणाएं फैली हैं। इसमें तंत्र परंपरा का दोष नहीं वरन उन छदम कथित तांत्रिकों का दोष है। जो बिना तंत्रज्ञान के ही तांत्रिक बन गए। ऐसे ही लोगों द्वारा तंत्र मंत्र के नाम पर पूजा पाठ की आड़ में व्यभिचार, भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देकर जनमानस को तंत्र के नाम पर भयभीत किया जाता है। तंत्र जगत में इन्हीं लोगों द्वारा पंच मकार की भी गलत व्याख्या कर दुष्प्रचार किया गया ।वास्तव में पवित्र पंच मकार क्या है। मैंने दुर्लभ प्राचीन ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इस लेख माला को लिखा है। आशा है आप पंच मकार के रहस्य को समझेंगे।

Dr. Ramesh Khanna

बहिरंग साधना दीक्षाः-
मानव शरीर की जितनी विशेषताएं हैं, उनमें एक यह भी है कि स्थूल शरीर के साथ अन्य शरीर भी दूध में जल की तरह मिले हुए विद्यमान रहते हैं। बहिरंग साधना तीन शरीरों द्वारा होती है। स्थूल शरीर, भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर द्वारा। स्थूल शरीर का केंद्र हृदय है। भाव शरीर का केंद्र नाभि है। ध्यान की सिद्धि और पूर्णता भाव शरीर में होती है तथा सहज समाधि की अवस्था प्राप्त होती है सूक्ष्म शरीर में। इन दोनों शरीरों का ज्ञान होना आवश्यक है। मन्त्र के अधिष्ठातृ देवता का दर्शन भाव शरीर द्वारा होता है। इसी प्रकार मंत्रबद्ध सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं का साक्षात्कार भी सूक्ष्म शरीर द्वारा ही होता है। जो बहिरंग साधना-मार्ग के उच्च साधक हैं, वे भूत-प्रेत, पिशाच-पिशाचिनी, यक्ष-यक्षिणी आदि सूक्ष्म शरीरधारी शक्ति संपन्न आत्माओं को मंत्र-शक्ति के द्वारा बांधकर उनसे अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा ही कार्य लेते हैं। इसी प्रकार ध्यानयोग के द्वारा भाव शरीर के माध्यम से देवताओं से साक्षात्कार करते हैं। बहुत से साधक ऐसे होते हैं कि तांत्रिक क्रियाओं द्वारा स्थूल शरीर को कुछ समय के लिए त्यागकर भाव शरीर या सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और उनके द्वारा अगम्य स्थानों की यात्रा करते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे के शरीर में प्रवेश कर उसके भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में पूरी जानकारी कर लेते हैं। तंत्र की बड़ी ऊँची क्रिया-पद्धति मानी जाती है यह। किन्तु जरा-सी चूक होने पर जान जा सकती है इसमें।
अंतरंग साधना में दीक्षा-
अंतरंग साधना में छह प्रकार की दीक्षा का क्रम है जिनमें प्रमुख है। शक्तिपात दीक्षा। साधक के बहिरंग साधना में पारंगत होने पर ही उसे अंतरंग साधना में प्रवेश मिलता है तभी वह शक्तिपात दीक्षा का अधिकारी बनता है। साधक के पूर्व संस्कार के अनुसार यथासमय सद्गुरु स्वयम् उपस्थित होकर यह दीक्षा प्रदान करते हैं। इसका सीधा-सा तात्पर्य है कि सद्गुरु अपने अन्तर्चक्षुओं के माध्यम से अपने भावी शिष्य, उसके संस्कार और उसकी साधना-प्रक्रिया पर दृष्टि रखे रहते हैं।
शक्तिपात् दीक्षा के पूर्व सद्गुरु शिष्य के स्थूल शरीर को विशेष् तांत्रिक क्रिया द्वारा भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर से अलग करते हैं और दोनों के साथ अपने भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इस क्रिया के बाद क्रम से दोनों शरीरों का अतिक्रमण कर मनोमय शरीर से तादात्म्य स्थापित करते हैं और साधक के उसी मनोमय शरीर में शक्तिपात् दीक्षा प्रदान करते हैं।
तंत्र ने अपना द्वार सबके लिए खोल रखा है। तांत्रिक साधना-मार्ग की भूमि में कोई भी अपना पद-चिन्ह अंकित कर सकता है। कोई भी वर्ण हो, कोई भी जाति हो, स्त्री हो या हो पुरुष , किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं। तंत्र की ओर बहुत-से लोगों के आकर्षित होने का यही एक मात्र कारण है। सच कहा जाय तो कलियुग में तंत्र -साधना ही एकमात्र सफल होती है।’
इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी तंत्र-साधना का अधिकारी बन सकता है। इस मार्ग में पात्रता होना सबसे महत्वपूर्ण है। पात्रता के अभाव में साधक इसमें आ नहीं सकता। यह कार्य गुरु का है कि वह योग्यतानुसार शिष्य की परीक्षा करे और उसके अनुसार तंत्र की दीक्षा देकर उसको इस मार्ग में प्रविष्टि दे। तांत्रिक साधना की परीक्षा अत्यन्त कठिन है। योग्य गुरु तरह-तरह-से अपने शिष्य की परीक्षा लेता है और प्रत्येक दृष्टि से सफल होने पर ही उसे तंत्र की दीक्षा देता है।’
-मुद्रा-

पिछली पोस्टों में मादितत्व के विचार-क्रम में मद्य, मांस, और मीन पञ्च मकारों पर विचार-विश्लेषण हो चुका है। अब यहां मुद्रा पर विचार किया जायेगा। ब्राह्मण धर्म में साधारणतया श्मुद्राश् से अभिप्राय एक विशिष्ट शारीरिक क्रिया से लिया जाता है। तंत्र में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत आदि चक्रों के साथ-साथ श्खेचरीश् आदि मुद्राएं तथा पूरक, कुम्भक ,रेचक आदि प्राणायामों की विवेचना है जो योग-दर्शन की कर्तव्य- मीमांसा में दिखाई देती है। परंतु यहाँ मुद्रा का एक दूसरा ही अर्थ है जिसका प्रमाण श्विजय तंत्रश् के एक श्लोक से मिलता है।

सत्संगेन भवेन्मुक्तिर
सत्संगेषु बन्धनम।
असत्संगमुद्रणम् यत्त
तन्मुद्रा परिकीर्तिता।।

अर्थात-संत्सगति के प्रभाव से मुक्ति प्राप्त होती है और कुसंगति के प्रभाव से नाना प्रकार के मोह-माया आदि बन्धन प्राप्त होते हैं। इसी कुसंगति के त्याग का नाम मुद्रा है। इस प्रकार मुद्रा से तात्पर्य श्असत्संग का परित्याग है।

शेष आगे के लेख भाग 7 में पढ़ें…………

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