प्रयागराज। वैदिक शास्त्रों में सन्यास परंपरा को ईश्वर प्राप्ति का सबसे कठिन मार्ग बताया गया है। सन्यास धारण करने से पूर्व पूर्व में गुरु लोग 12 वर्षों तक सन्यासी बनने वाले व्यक्ति की कड़ी परीक्षा लिया करते थे।परीक्षा में पास होने के बाद सन्यास दिया जाता था। किंतु आज तो चेला दिखा नहीं ओर काट दी चोटी।
संन्यास लेने से पूर्व व्यक्ति को अपना स्वयं का तथा परिजनों का पिंडदान करना पड़ता है। पिंडदान करने के बाद व्यक्ति एक तरह से प्रेत हो जाता है, क्योंकि प्रेत का ही पिंडदान किया जाता है। संन्यास लेने के बाद व्यक्ति सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता हो जाता है।
कहा गया है कि सम्यक रूपेण न्यास इति सन्यास अर्थात जहां समानता है वहीं संन्यास है।
यहां तक कि उसे अपने जन्म मृत्यु का भी भय नहीं सताता, किंतु वर्तमान में कुछ कथित भगवाधारी संन्यास लेने के बाद भी जन्म मरण के बंधन में बंधे हुए हैं। करण की जब व्यक्ति ने स्वयं का तथा परिजनों का पिंडदान कर दिया और वह सभी प्रकार की सांसारिक मोह माया से मुक्त हो गया तो उसे अपने मृत्यु का भी भय नहीं रहता, किंतु वर्तमान में कुछ कथित संत मृत्यु के भय के साए में जीवन यापन कर रहे हैं।
वर्तमान में कुंभ मेला क्षेत्र में देखा जाए तो ऐसे सैकड़ो संत हैं जो सुरक्षा घेरे में चलते हैं, जिनके आगे एस्कॉर्ट चलती है। गनरधारी आगे पीछे घूमते हैं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब व्यक्ति जन्म मृत्यु से ऊपर उठ गया तो उसे अपनी सुरक्षा की क्या आवश्यकता। पूर्व मेंआम जनमानस की रक्षा गुरु जन किया करते , थे किंतु आज गुरु जनों को अपनी सुरक्षा के लिए सुरक्षा की आवश्यकता पड़ने लगी है। इस स्थिति को देखकर यह कहा जा सकता है की अभी भी उन्हें मृत्यु का भय सता रहा है जिस कारण से शास्त्रोक्त नियमानुसार इन्हें पूर्ण सन्यासी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जब व्यक्ति हर प्रकार के कर्म से मुक्त होकर भगवत प्राप्ति के मार्ग में चल पड़ा तो उसे सुरक्षा की क्या आवश्यकता। सुरक्षा तो भयभीत लोगों द्वारा ली जाती है।
ऐसे में जो व्यक्ति सन्यास धारण करने के बाद भी भय के साए में जीवन जीने को मजबूर हो वह अपने भक्तों, देश व समाज की क्या रक्षा कर पाएगा यह एक विचारणीय प्रश्न है। कुछ भगवाधारी ऐसे भी है जो सुरक्षा लेने के लिए कई प्रकार के हथकंडे अपनाते हैं।