अब मण्डलेश्वर बनना है तो खर्च करने होंगे 5 करोड़!

हरिद्वार। मोह-माया से दूर रहने का उपदेश देने और स्वंय को महात्यागी कहकर प्रचारित करने वाले मोह माया में आकंठ तक डूबे हुए हैं। इसका अंदाजा इनके राजशाही ठाट-बाट से ही लगाया जा सकता है। महंगी लग्जरी गाड़ियां, महलनुमा आश्रम में रहना इनका शौक बन गया है। ऐसे में तप-त्याग की बात इनके संबंध में करना ही बेमानी है। ऐसा नहीं की संत नहीं हैं। संत आज भी हैं किन्तु संतों के भेष में कालनेमियों की संख्या अधिक हो गयी है। वैसे तो अब संत बनने के लिए कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ेगा, किन्तु साथ ही मोटी रकम भी खर्च करनी होगी, यदि किसी संत को मण्डलेश्वर बनना है तो।


सूत्र बताते हैं कि एक अखाड़े में उत्तर प्रदेश में निवास करने वाले एक महंत ने स्वंय के मण्डलेश्वर बनने की इच्छा व्यक्त की। जिसके बाद उसे पहले तो स्पष्ट जवाब नहीं दिया गया, किन्तु दो-चार दिन बाद मण्डलेश्वर बनने के लिए 5 करोड़ रुपये अखाड़े में जमा करने की चर्चा कर महंत को मना किए बिना ही मना कर दिया। 5 करोड़ की चर्चा सुनने के बाद महंत ने भी अपने हाथ पीछे खींच लिए।
सूत्र बताते हैं कि महंत ने यदि मण्डलेश्वर बनने की ठान ली तो वह बिना पैसे दिए ही मण्डलेश्वर बनेगा। जिसको अखाड़े के पदाधिकारियों को भी मना करने की हिम्मत नहीं होगी। कारण की कुछ समय पूर्व महंत का जलवा कुछ संत देख चुके हैं।


वैसे कुछ को छोड़ दें तो शेष सभी अखाड़ों में बिना धन दिए मण्डलेश्वर बनने की बात तो दूर कारोबारी, कोठारी, अष्टकौशल महंत आदि कुछ भी नहीं बनाया जाता। बावजूद इसके स्वंय को सबसे बड़ा त्यागी कहते हुए ऐसे लोग नहीं थकते।
देखा जाए तो इसमें गलती इनकी भी नहीं हैं। यदि धर्म शास्त्रों पर विश्वास करें तो श्रीमद् भागवत महापुराण में लिखा है कि,

अर्थात

ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया।
कालेन बलिना राजन् नङ्क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः।।

कलयुग में धर्म, स्वच्छता, सत्यवादिता, स्मृति, शारीरक शक्ति, दया भाव और जीवन की अवधि दिन-ब-दिन घटती जाएगी।

कलयुग में वही व्यक्ति गुणी माना जायेगा, जिसके पास ज्यादा धन होगा। न्याय और कानून सिर्फ एक शक्ति के आधार पर होगा।

वित्तमेव कलौ नणां जन्माचारगुणोदयः।
धर्मन्याय व्यवस्थायां कारणं बलमेव हि।।

लिङ्गं एवाश्रमख्यातौ अन्योन्यापत्ति कारणम्।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वचः।।

घूस देने वाले व्यक्ति ही न्याय पा सकेंगे और जो धन नहीं खर्च पायेगा उसे न्याय के लिए दर-दर की ठोकरे खानी होंगी। स्वार्थी और चालाक लोगों को कलयुग में विद्वान माना जायेगा।’

अनाढ्यतैव असाधुत्वे साधुत्वे दंभ एव तु।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम्।।

दाक्ष्यं कुटुंबभरणं यशोऽर्थे धर्मसेवनम्।
एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिः आकीर्णे क्षितिमण्डले।।

लोग सिर्फ दूसरांे के सामने अच्छा दिखने के लिए धर्म-कर्म के काम करेंगे। कलयुग में दिखावा बहुत होगा और पृथ्वी पर भ्रष्ट लोग भारी मात्रा में होंगे। लोग सत्ता या शक्ति हासिल करने के लिए किसी को मारने से भी पीछे नहीं हटेंगे।
उपराक्त श्रीमद् भागवत में जो महर्षि वेदव्यास ने वर्णित किया है आज के परिवेश में वह स्पष्ट दिखायी दे रहा है। आज धनवान ही विद्वान माना जाने लगा है। धर्म-कर्म दिखावा बनकर रह गया है और धन व शक्ति के बल पर न्याय को भी इनके द्वारा अपनी मुट्ठी में किया हुआ है।

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