संत परम्परा व सनातन धर्म जाए भाड़ में, बस पद मिलना चाहिए
देवेन्द्र सिंह शास्त्री फर्जी तो पूर्व की अखाड़ा परिषद की कार्यकारिणी असली कैसे!
हरिद्वार। बिना संविधान की अखिल भारतीय अखाड़ा की रार दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। परिषद के दोनों ही गुट अपने पक्ष में बहुमत होने का दावा करते हुए अपने को असली बताने में जुटे हुए हैं। जिस प्रकार से रार बढ़ती जा रही है उसको देखते हुए लगता है कि मामला अब बिना कोर्ट के सुलझने वाला नहीं है।
महानिर्वाण अखाड़े के सचिव महंत रविन्द्रपुरी महाराज के नेतृत्व वाली अखाड़ा परिषद अपने साथ सात अखाड़ों का बहुमत होने का दावा कर रही है। जिसमें उनके साथ महानिर्वाणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा, बड़ा उदासीन, निर्मल व बैरागियों के तीन अखाड़े शामिल हैं। जबकि निरंजनी के सचिव महंत रविन्द्रपुरी महाराज के नेतृत्व वाली अखाड़ा परिषद भी अपने साथ आठ अखाड़ों का बहुमत होने का दावा कर रही है। उनके मुताबिक उनके साथ जूना, अग्नि, आवाह्न, आनन्द, निरंजनी, निर्मल, नया उदासीन व बैरागी का निर्माही अखाड़ा शामिल है। इस हिसाब से उनके पास बहुमत का आंकड़ा आठ हो जाता है। किन्तु यहां यह जानना जरूरी है कि अखाड़ा परिषद के चुनाव में किसको वोट देने का अधिकार है। परिषद के चुनाव में केवल अखाड़ों के अध्यक्ष और सचिव ही मतदान प्रक्रिया में हिस्सा ले सकते हैं। जबकि प्रयागराज में हुई बैठक में न तो निर्मल अखाड़े के रेशम सिंह को मतदान करने का अधिकार था और न ही बैरागी निर्माेही अखाड़े के मदन मोहन दास को। ऐसे में संख्या बल छह ही रह जाता है।
वहीं परिषद में जिस रेशम सिंह के माध्यम से निर्मल अखाड़े का समर्थन मिलने का दावा किया जा रहा है दूसरी परिषद के मुताबिक वह शादीशुदा हैं और केवल संत का वेश धारण किए हुए है। जबकि पूर्व में अखाड़ा परिषद में कुछ संतों को इसलिए फर्जी बताकर संत समाज से निष्कासित कर दिया गया था कि उनका अपने परिवार से संबंध है। वहीं श्रीमहंत नरेन्द्र गिरि ने भी अपने शिष्य आनन्द गिरि को परिवार से संबंध रखने का आरोप लगाते हुए अखाड़े और मठ से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। अब वहीं परिवार वाले असंली संत होने लगे। इन सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि नियम कायदे वर्तमान में अखाड़ा परिषद और संतों के लिए कोई मायने नहीं रखते। बस साम, दाम, दंड व भेद के द्वारा किसी भी प्रकार से इनको पद मिलना चाहिए। इतना ही नहीं कनखल थाने में रेशम सिंह समेत 11 के खिलाफ वर्ष 2019 में मुकद्मा दर्ज कराया हुआ है। साथ ही अखाड़े से उसका कोई संबंध नहीं है। वह केवल एक डेरे के महंत मात्र है। जबकि परिषद के चुनाव में अखाड़े का साथ होना जरूरी होता है।
जिस रेशम सिंह को वर्तमान में निर्मल अखाड़े का सर्वे सर्वा बताने के साथ पूर्व की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष रहे महंत देवेन्द्र सिंह को फर्जी बताया जाने लगा है। सवाल उठता है कि जब देवेन्द्र सिंह शास्त्री महाराज फर्जी संत हैं तो पूर्व की कार्यकारिणी में उन्हें उपाध्यक्ष जैसा महत्वपूर्ण दायित्व क्यों दिया गया। दूसरा यह कि श्रीमहंत नरेन्द्र गिरि की मौत के बाद उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष क्यों बनाया गया। यदि देवेन्द्र सिंह शास्त्री फर्जी हैं तो इस हिसाब से पूर्व की समूची कार्यकारिणी फर्जी होनी चाहिए। ऐसे में पद के लिए लड़ाई का औचित्य समझ से परे हैं। कुल मिलाकर अखाड़ा परिषद की लड़ाई अपना वर्चस्व कायम रखने की लड़ाई है न की संतों के हितों की रक्षा और सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए है।

अब शादीशुदा का भी समर्थन लेने लगी अखाड़ा परिषद!


