मां मंशा देवी ट्रस्ट विवादः रविन्द्र पुरी के अपने ही खेल रहे खेला

हरिद्वार। मां मंशा देवी ट्रस्ट को लेकर उत्पन्न हुए विवाद में रोज नए खेल हो रहे हैं। जहां कुछ लोग श्रीमहंत रविन्द्र पुरी का समर्थन कर रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग सुरेश तिवारी आदि के समर्थन में हैं। जबकि मामले में उच्च न्यायालय के आदेशांें का 11 वर्षों बाद तक अनुपालन ना कराया जाना भी मुख्य फांस बन चुका है। इसी के चलते उच्च न्यायाल के वर्ष 2012 के आदेश के अनुपालन में 11 वर्ष बाद शनिवार को नगर मजिस्ट्रेट ने ट्रस्ट से जुड़े दोनों पक्षों को बुलाया और उनकी बात सुनी।
नगर मजिस्ट्रेट अवधेश कुमार के समक्ष ट्रस्ट का दावा कर रहे दोनों पक्षों ने अपना-अपना पक्ष रखा। जिसमें मंशा देवी ट्रस्ट के एक पक्ष की ओर से अनिल शर्मा व धीरज गिरि उपस्थित हुए। जबकि वन विभाग की ओर से रेंज अधिकारी विजय सैनी व वन्य जीव प्रतिपालक श्री टम्टा उपस्थित हुए। वहीं दूसरे पक्ष की ओर से वासू सिंह व सुरेश तिवारी ने अपना पक्ष रखा। जानकारी के मुताबिक अनिल शर्मा व धीरज गिरि नगर मजिस्ट्रेट के समक्ष 1963 की वसीयत के आधार पर अपने चार सदस्यीय ट्रस्ट की वकालत की, जबकि वासू सिंह व सुरेश तिवारी ने भी अपना पक्ष रखा। नगर मजिस्ट्रेट ने सभी पक्षों को सुनने के बाद पूरे कागजात के साथ अगली सुनवाई में उपस्थित होने के आदेश दिए हैं।
इस पूरे प्रकरण में मजेदार बात यह कि श्रीमहंत रविन्द्र पुरी के साथ उन्हीं के वफादार कहे जाने वाले बड़ा खेल कर रहे हैं। विश्वसनीय सूत्रों के मुताबिक श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी से जुड़े एक बड़े संत व सुरेश तिवारी के बीच कई बार ट्रस्ट को लेकर मंत्रणा हो चुकी है। इस खेल के पीछे निरंजनी अखाड़े से जुड़ा बड़ा संत मुख्य किरदार में बताया जा रहा है। जो की शाम, दाम, दंड, भेद के जरिए इस मामले को हवा देना चाहता है। हालांकि यह बड़ा संत ऐसा क्यों कर रहा है इसका कारण अभी तक साफ नहीं हो पाया है। सूत्र बताते हैं कि अखाड़े के संतों के साथ हुए मनमुटाव के कारण यह बड़ा संत अपना खेला खेलकर अपना दवाब बनाना चाहता है। बहरहाल ट्रस्ट के विवाद से अधिक पेंच मंशा देवी ट्रस्ट से जुड़े दोनों पक्षों और प्रशासन के लिए उच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 2012 में दिए गए आदेश का अनुपालन आज तक ना होने को लेकर समस्या बनी हुई है। जिसका पूरा लाभ दूसरे पक्ष को मिल सकता है। साथ ही जिलाधिकारी और एसएसपी को ट्रस्ट में आदेश के बाद आज तक शामिल ना कराने का मामला भी गले की फांस बन सकता है।

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