हरिद्वार। वैसे तो संत मोह, माया, लालसा से दूर होते हैं, किन्तु इसे कलयुग का प्रभाव ही कहा जाएगा कि अब त्यागी कहलाने वाले पद और सम्पदा के पीछे मौका मिलते ही दौड़ना शुरू हो जाते हैं। ऐसा ही अखाड़ा परिषद में भी देखने को मिला। जिस कारण से अखाड़ा परिषद दो फाड़ हो गयी। संतों में फूट का असली कारण पद की लालसा रही।
संतों की माने तो अखाड़ों के संत अखाड़ा परिषद के दो फाड़ होने के खिलाफ थे, किन्तु कुछ संतों की अखाड़ा पारिषद के पदों पर कुंडली और बार-बार पदाधिकारी बनने की लालसा ने परिषद को दो फाड़ कर दिया। संतों का कहना है कि अखाड़ा परिषद को दो फाड़ होने से बचाने का काफी प्रयास किया गया, किन्तु कुछ लोगों की हठधर्मिता के चलते अखाड़ा परिषद के दो फाड़ हुए। कुछ संतों का कहना है कि 25 अक्टूबर को प्रयागराज में बैठक नियत थी, किन्तु बैठक से पूर्व ही गुपचुप तरीके से अध्यक्ष पद पर चयन किया जा चुका था। वहीं बैरागी संतों की इच्छा के बाद भी उन्हें बैठक से दूर रखने की पूरी कोशिश की गयी। जबकि बैरागी संतों को किसी के भी अध्यक्ष बनने से कोई समस्या नहीं थी। उनकी केवल एक ही मांग थी की एक पद बैरागी संतों को भी दिया जाना चाहिए। वहीं कुछ सन्यासी भी बैरागियों को बैठक में बुलाने के पक्षधर थे। जबकि कुछ नहीं चाहते थे कि बैठक में बैरागी आएं और उनका पद चला जाए। जबकि बैरागी और दूसरे गुट के अन्य सन्यासियों को भी किसी को भी अध्यक्ष बनाने से कोई गुरेज नहीं था। सभी एक मत से अध्यक्ष के साथ अन्य पदाधिकारियों के चयन पर जोर दे रहे थे। यदि संतों की बात मान ली जाती और सभी पदों पर चुनाव हो जाता तो कुछ संत पैदल हो जाते, जो की उन्हें किसी भी कीमत पद मंजूर नहीं था। संतों के मुताबिक अखाड़ा परिषद पर वह अपना वर्चस्व कायम रखना चाहते थे। यदि पद की लालसा को छोड़ दिया जाता तो अखाड़ा परिषद किसी भी कीमत पर दो फाड़ नहीं होती। संतों का कहना है कि आरम्भ से परिषद में अध्यक्ष व महामंत्री में से एक पद सन्यासी व एक पद बैरागी संतों के पास रहा है। इस बार भी इसी प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए था, किन्तु जब चयन बैठक से पूर्व किया जा चुका था और बैरागियों को दूर रखे जाने की रणनीति पर अमल हो चुका था तो अखाड़ा परिषद के दो फाड़ होने के सिवाय और कोई चारा नहीं था। संतों का कहना है कि यदि कुछ लोग पद की लालसा को त्याग देते तो परिषद दो फाड़ नहीं होती। भले की अध्यक्ष कोई भी बनता।

पद का मोह त्याग देते तो दो फाड़ नहीं होती अखाड़ा परिषद!


