भाग-3 तंत्र जगत का सबसे बड़ा रहस्य पंच मकार क्या है, बता रहे है डा. रमेश खन्ना

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः

सनातन काल से ही इस देश में तंत्र को ज्ञान कर्म और उपासना का स्रोत समझा जाता रहा है। तंत्रों के बारे में जो अनेक भ्रम और धारणाएं फैली हैं। इसमें तंत्र परंपरा का दोष नहीं वरन उन छदम कथित तांत्रिकों का दोष है। जो बिना तंत्रज्ञान के ही तांत्रिक बन गए। ऐसे ही लोगों द्वारा तंत्र मंत्र के नाम पर पूजा पाठ की आड़ में व्यभिचार भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देकर जनमानस को तंत्र के नाम पर भयभीत किया जाता है। तंत्र जगत में इन्हीं लोगों द्वारा पंच मकार की भी गलत व्याख्या कर दुष्प्रचार किया गया ।वास्तव में पवित्र पंच मकार क्या है। मैंने दुर्लभ प्राचीन ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इस लेख माला को लिखा है। आशा है आप पंच मकार के रहस्य को समझेंगे।
वामाचारी साधना-मार्ग अत्यन्त कठिन और दुरूह है। इस पर चलना सभी के वश की बात नहीं है। श्वामाश् का अर्थ है-स्त्री। इस मार्ग की जितनी भी साधनाएं हैं, सब का आधार है–स्त्री। इसलिए इसे श्वामाचारश् की संज्ञा दी गयी है। साधना की दृष्टि से स्त्री के साथ जो आचरण किया जाता है, वह है–श्वामाचारश्। इसीलिए कहा गया है- श्वामा$चारः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।
अर्थात-वामाचारी साधना का मार्ग परम गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है।’
यह मार्ग स्पष्ट रूप से कहता है -सर्व धर्मान् परित्यज्योनिपूजारतो भवेत।’
’अर्थात-सभी धर्मों का परित्याग करके मातृरूपा योनि की पूजा करनी चाहिए। साधारणतया इसका अर्थ बहुत ओछा और अश्लील दिखाई देता है और इससे व्यभिचार के फैलने का भ्रम होता है, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। वामाचारी साधना में भैरवी के साथ जो आचरण होता है, वह वही होता है जो परम् पूज्य माँ के लिए उचित है। महाभैरवी साधक के लिए माँ की तरह पूज्या हो जाती है। स्त्री कोई भी जाति या धर्म की हो, वह योग-तांत्रिक दीक्षा से साधक की साधना के योग्य हो जाती है-दीक्षामात्रेण शुध्यन्ति स्त्रियः सर्वत्र कर्मणि।
यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो वामाचारी साधना- मार्ग प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर ले जाता है। बाह्य क्रियाओं का सहारा लेकर साधक साधना की आतंरिक भूमि में प्रवेश करता है। कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग, सातत्ययोग आदि जितने भी योग हैं, उन सबका श्कुण्डलिनी योगश् में समावेश है। कुण्डलिनी-जागरण का अभ्यास सद्गुरु के सानिध्य और निर्देशन में ही सम्भव है।’
कौलाचार- इसका रहस्य अत्यन्त गूढ़ है। कौल कुल शब्द से बना हुआ है। श्कुलश् का अर्थ है-कुण्डलिनी शक्ति। तथा अकुल का अर्थ है-शिव। जो व्यक्ति योग-विद्या के सहारे कुण्डलिनी का उत्थान कर सहस्त्रार में स्थित श्शिवश् के साथ संयोग करा देता है, उसे ही श्कौलश् कहते हैं।’
कुलाचार- कुण्डलिनी शक्ति ही कुलाचार का मूल आलम्बन है। कुण्डलिनी के साथ जो आचार किया जाता है, उसको श्कुलाचारश् कहते हैं। यह आचार मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन–इन पञ्च मकारों के सहयोग से अनुष्ठित होता है। पंचमकार का रहस्य नितान्त गूढ़ है। उसे ठीक-ठीक न जानने के कारण लोगों में अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैली हुई हैं। इन पांचों मकारों का सम्बन्ध अंतर्याग से है। श्कुलाचारश् ही श्कौलाचारश् या श्वामाचारश् के नाम से प्रसिद्ध है। पंचतत्व को मुद्रा समझना चाहिये। वास्तव में ये पञ्चमकार योगी की पञ्चमुद्रा हैं जो उसे मुक्ति देने वाले हैं-
मद्यम् मासं व मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।
मकारपंचकं प्राहुर्योगिनरू मुक्ति दायिकम्।।

अर्थात-मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन-ये पंचमकार योगी को मुक्ति देने वाले कहे गए हैं।
’पंचमकार का यौगिक रूप’- अनेक प्राचीन तांत्रिक ग्रन्थों के अनुसार ऋषि वशिष्ठ ने अनार्य तंत्रों से प्रभावित होकर पंचमकार की विशिष्ट पद्धति का प्रचार किया था। सम्भव है कि उन्होंने अर्वाचीन कौलमार्गी अनार्यों से प्रभावित होकर इन पंचमकारों को अपनी उपासना के साधन माने हों। लेकिन बहुत से तांत्रिक अनुशीलनकर्ताओं ने अपने अनुसन्धान के आधार पर यह मत स्थापित किया है कि ये उक्त पंचमकार वैदिक अनुष्ठानों से ही अनुस्यूत हैं। जिनमें पांच ऐसे तत्वों की गणना है जिनका प्रथम अक्षर म है और इसीलिए इन्हें मादितत्व भी कहा जाता है।’ कौलाचार के मूल ग्रन्थ कुलार्णवतंत्र में इन पांचों को समझाया गया है-श्मद्यम् मासं च मत्स्यम च मुद्रा मैथुनमेव च।
मकारपंचमं देवि देवता प्रीतिकारकम।।

Dr. ramesh Khanna


’अर्थात-हे देवि ! मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन- ये पांचों देवता को प्रसन्न करने वाले कारक हैं। ये उपासना के लिए परम आवश्यक हैं। यदि इनके बिना कोई साधना करता है तो उसकी साधना निष्फल जाती है।
’श्रीविद्या के उपासक समयाचार के मतावलंबी साधक इन पांचों तत्वों का प्रत्यक्ष प्रयोग न कर उनकी कल्पना कर लेते हैं अथवा उनके स्थान पर वे किसी अन्य वस्तु का प्रयोग प्रतीक के रूप में करते हैं। जैसे-मांस के स्थान पर जवा-फूल आदि। परन्तु कौलमत में इनके प्रयोग को लेकर दो मत चल पड़े हैं-पूर्वकौल और उत्तरकौल। पूर्वकौल के अनुसार श्रीचक्र के भीतर स्थित योनि की प्रतीक पूजा की जाती है, जबकि उत्तरकौल के अनुसार इनका सब का प्रत्यक्ष प्रयोग किया जाता है।
शेष आगे के लेख भाग 4 में पढ़ें…………

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