जब आचार्य से गुदड़ बने आचार्य

हरिद्वार। किसी भी धर्म, व पंथ में अंतिम संस्कारों की अपनी-अपनी परम्पराएं होती हैं। साधुओं में कुछ का अग्नि संस्कार किया जाता है तो कुछ को जल व भू समाधि दिए जाने का विधान है। संन्यायी के लिए केवल जल व भू समाधि का विधान है। इसी के साथ कुछ परम्पराएं होती हैं जिनका निर्वहन किया जाता है।
किसी भी अखाड़े का आचार्य मण्डलेश्वर संन्यास दीक्षा देते समय नव संन्यासी के कान में प्रेयस मंत्र फूंकता है। जबकि समाधि के समय गूदड़ अखाड़े का संत ब्रह्मलीन संत के कान में पारस मंत्र फूंकता है। किन्तु यहां श्रीमहंत नरेन्द्र गिरि को समाधि देते हुए उनके कान में पारस मंत्र फूंकने का दावा निरंजन पीठाधीश्वर ने किया। जबकि यह काम केवल और केवल गूदड़ का होता है। इसी के साथ समाधि लगाने तक की प्रक्रिया, कपाल क्रिया और ब्रह्मलीन संत पर चढ़े वस्त्र व धन आदि पर भी गूदड़ का अधिकार होता है। जबकि यहां एक आचार्य ने ब्रह्मलीन श्रीमहंत के कान में पारस मंत्र दिया। जिस कारण से आचार्य आचार्य से गूदड़ बन गए।

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