शादी, संत और संस्कृति का कबाड़ा

प्रसिद्ध उद्योगपति मुकेश अंबानी के पुत्र के विवाह समारोह में देश-विदेश के लोगों का जमावड़ा लगा। हर क्षेत्र का विशेष व्यक्ति उस समारोह में शामिल हुआ। विवाह समारोह में शामिल होने के लिए लोगों में उत्सुकता भी देखी गई। इस समारोह में कुछ कथित संतों ने भी शिरकत की।


संतों के विवाह समारोह में शिरकत करने के बाद तमाम तरह के सवाल उठने लगे हैं। बड़ा सवाल यह की सन्यासी को विवाह आदि शुभ कार्यों में जाना चाहिए या नहीं। यदि शास्त्रों के आलोक में देखें तो संन्यासी को किसी भी विवाह आदि शुभ कार्य में जाना निषेध बताया गया है।


शास्त्रों में उल्लेखित है कि संन्यासी को केवल दिन में एक बार ही शहर में आना चाहिए। वह भी भिक्षा के लिए। भिक्षा भी तीन घरों में लेने का विधान है। यदि तीन घरों से भिक्षा न मिले तो चौथे घर में भिक्षा मांगना भी निषेध बताया गया है। किन्तु आज आलीशान महलनुमा घरों में रहने के ये आदी हो चुके हैं। वहीं सन्यास लेने से पूर्व व्यक्ति अपना तथा अपने परिजनों का पिण्डदान आदि कर्म कर देता है। साथ ही प्रतिकात्मक रूप से दाह संस्कार भी किया जाता है। उसके बाद बिरजा होम होने पर संन्यासी के संस्कार पूर्ण हो जाते हैं। जब व्यक्ति अपना सब कुछ स्वाह कर देता है तो उसे विवाह आदि शुभ कार्यों में जाने का औचित्य क्या। संन्यासी को तो संसार में रहते हुए भी संसार से विलग बताया गया है। एक संत ने तो यहां तक बताया कि संन्यासी का स्पर्श करने पर स्नान करने का विधान है।


महाराज शुद्धक्र द्वारा रचित मृच्छ कटिकम् में तो खलवाट (केशहीन संन्यासी) के किसी शुभ कार्य के लिए जाते हुए दर्शन होने को भी अपशगुन बताया गया है।


यहां यह विचारणीय है कि पिण्डादान किसका किया जाता है और जीवित का पिण्डदान यदि किया जाता है तो वह क्या हो जाता है। ऐसे में किसी के शुभ कार्य में जाकर अपशगुन करना वह भी उन लोगों द्वारा जो स्वंय मंचों से सनातन संस्कृति, नियम और मर्यादाओं का पाठ पढ़ाते हुए नहीं थकते। हास्यास्प्रद तो यह की स्वंय को शंकराचार्य कहलाने वाले कथित संत जो अपने का सनातन के सर्वोच्च पद पर आसीन बताते नहीं थकते वह भी विवाह समारोह में मौजूद रहे। कुछ कथित संत समारोह में सम्मान पाने की लालसा के साथ गए, जबकि संन्यासी मान-अपमान, राग-द्वेष, सम-विषम सभी से दूर रहता है। इसलिए संन्यास के संबंध में कहा गया है कि सम्यक रूपेश शामयति इति संन्यास।


अब ऐसे में समय-समय पर संस्कृति का ज्ञान पेलने वाले जब स्वंय की शास्त्र और संन्यास की मर्यादा के विरूद्ध कार्य करेंगे तो फिर सनातन संस्कृति और शास्त्रों की मर्यादा को कैसे बचाये रखा जा सकता है।

वैसे आजकल साधु भी जब भगवा धारण करते हुए गृहस्थ जीवन का आनन्द ले सकते हैं और वे अपने बच्चों का विवाह भी कर रहे हैं, तो एक दृष्टि से संन्यासी को शुभ कार्य में जाने का कोई दोष नहीं है। वैसे हरिद्वार में भी कई ऐसे भगवाधारी हैं जिनके बच्चे घूम रहे हैं और कुछ ने अपने बच्चों का अभी तीसरा और चौथा जन्मदिन तक मनाया है।

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