अपने अस्तित्व को खुद मिटाने पर तुलीं गिरियों की दसों मढि़यां
हरिद्वार। नागा संन्यासियों का इतिहास वीरता भरा रहा है। समय आने पर इन्होंने देश व धर्म रक्षा के लिए शास्त्र के साथ शस्त्र भी उठाए और आततायियों को अपनी वीरता का परिचय दिया। किन्तु वर्तमान में नागा संन्यासी अपनी शक्ति का एहसास खत्म करते जा रहे हैं। जिस कारण से ये बड़ी संख्या में होते हुए भी अपने अधिकारों से वंचित किए जा रहे हैं। बावजूद इसके ये मौन धारण किए हुए हैं। जिससे इनके अस्तित्व पर भी सवालिया निशान लगना शुरू हो गया है।
बता दें कि बाघम्बरी मठ के श्री महंत नरेन्द्र गिरि की संदिग्ध मौत के बाद मठ विवादों में आ गया है। नरेन्द्र गिरि ने अपनी वसीयत व कथित सुसाइट नोट में भी मठ की जिम्मेदारी बलवीर गिरि को सौंपने की बात कही है। जबकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि बलवीर गिरि पुरी नामा है या फिर गिरि नामा। विदित हो कि बाघम्बरी मठ गिरि नामा संन्यासियों की गद्दी है। इस हिसाब से अन्य कांेई भी दस नामी संन्यासी केवल गिरियों के अलावा नहीं बैठ सकता। अभी तक पुरी गिरि होकर इस गद्दी पर राज करते रहे। बहरहाल गिरियों ने अपने हक की लड़ाई के लिए अभी तक आवाज नहीं उठायी। तपोनिधि श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी में 18 मढि़यां हैं। जिनमें से 10 गिरि नामा की, 5 पुरियों की, 2 भारती की व 1 मढ़ी वन नामा की है। इनमें भी गिरियों की दस मढि़यों के साथ वन व भारती भी साथ हैं। जबकि पांच पुरियों की मढ़ी में भी आपस में एकता नहीं है। अन्य मढ़ी गिरियों के साथ इसलिए बतायी गयी हैं कि अभी तक पुरियों की पांच मढ़ी के साधु अपने लाभ के लिए पुरी से गिरि, वन व भारती बनते रहे और दूसरों के अधिकारों पर कब्जा करते रहे। जैसा की बाघम्बरी मठ मंे ंदेखने को मिला, जहां नरेन्द्र गिरि पुरी होते हुए भी गिरि बनकर गिरियों के अधिकार को खा गए। इस कारण से अन्य मढि़यां भी इनकी हरकतों के कारण गिरियों के साथ खड़ी हैं।
अब जबकि बाघम्बरी मठ पर उत्तराधिकारी को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया है, ऐसे में गिरियों को अपनी दावेदार पेश करनी चाहिए और फर्जी गिरि बनकर कब्जा करने के खेल पर विराम लगाकर सनातन संस्कृति की रक्षा को आगे आना चाहिए। यदि विवाद का कोई निष्कर्ष नहीं निकलता है तो गिरियों को इस संबंध में चुनाव कराने के लिए पंचों को बाध्य करना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो पांच पुरियों की मढि़यों को छोड़ दें तो शेष 13 मढि़यों के संत एक तरफ होकर मतदान करेंगे और सही मायने में उत्तराधिकारी को चयन हो जाएगा। साथ ही फर्जी पुरी से गिरि बनकर कब्जा करने के खेल पर भी विराम लगेगा।
यहां यह भी बता दें कि अखाड़े में जिन पंचों और श्रीमहंतों को अखाड़े का मालिक मान लिया जाता है, वास्तव में अखाड़े के मालिक न होकर केवल व्यवस्थापक व संचालक के तौर पर होते हैं। निरंजनी अखाड़े के संविधान नागा गोसायियान एक्ट 1804 जो की वाराण्सी में रजिस्टर्ड है, में स्पष्ट लिखा है कि अखाड़े के स्वामी गुरु निरंजन देव के नागा संन्यासी होंगे। बाद में अखाड़ांे और मठ आदि के सुचारू संचालन के लिए पंच, श्रीमहंत आदि की व्यवस्था की। किन्तु आज पदों पर बैठे संत अखाड़े के स्वामी बन गए और वास्तविक स्वामी दूध मेें मक्खी की तरह बना दिए गए। जब जिसका जी चाहा निकाल बाहर खड़ा किया। यदि नागा संन्यासी अपने अधिकारों के लिए पुनः खड़े हो जाएं तो अखाड़ांे में आयी विकृति को कुछ ही समय में दूर किया जा सकता है। इसके लिए नागाआंे और गिरियों को अपनी शक्ति व सामर्थ्य को समझना होगा।