मां मंशा देवी ट्रस्टः अध्यक्ष को जबरन निकालने की रही है परम्परा

हरिद्वार। मां मंशा देवी मंदिर का अध्यक्ष व ट्रस्टी पद आरम्भ से ही विवादों में रहा। प्रारम्भिक अध्यक्ष के बाद कोई ऐसा अध्यक्ष नहीं रहा जिससे या तो जबरन इस्तीफा ना लिया हो या फिर उसे हटाया ना गया हो।
मां मंशा देवी ट्रस्ट के 1974 में पहले अध्यक्ष महंत लक्ष्मी नारायण गिरि बने थे। उनके निधन के बाद शंकर भारती अध्यक्ष बने। इसके बाद रामेश्वर पुरी ने शंकर भारती का त्यागपत्र लेकर अध्यक्ष पद खुद संभाल लिया। साथ ही अखाड़े से निष्कासित कर दिया गया और वर्षों तक एक छत्र राज करने के बाद अंत समय में उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया गया। तीन माह अध्यक्ष रहने के बाद रामानंद पुरी ने रामेश्वर पुरी को हटाया और खुद अध्यक्ष बन गए। जो रामानंद पुरी ने रामेश्वर पुरी के साथ किया था वहीं उनके साथ हुआ। इसके बाद रामांनद पुरी को हटाकर रविन्द्र पुरी कथित ट्रस्ट के अध्यक्ष बन गए। जबकि अपने अस्तित्व में आने के बाद से आज तक कथित ट्रस्ट अपंजीकृत की श्रेणी में है।


1990 में ठाकुर मेवा लाल राणा के निधन के बाद लक्ष्मी नारायण डागा ट्रस्टी बने। लक्ष्मी नारायण डागा के त्यागपत्र के बाद तरूण कुमार गांगुली ट्रस्टी बने। तरूण कुमार गांगुली की मृत्यु के बाद राजगिरि ट्रस्टी बना।
1996 राम स्नेही के त्याग पत्र के बाद राजेंद्र गिरि ट्रस्टी बने, 2016 में राजेंद्र गिरी के निधन के बाद प्रदीप शर्मा ट्रस्टी बने, 2018 रामानंद पुरी के त्याग पत्र के बाद महंत रविंद्र पुरी बने, 2020 में प्रदीप शर्मा के त्याग पत्र के बाद बिंदु गिरी ट्रस्टी बनी। अंबा दत्त जोशी की मृत्यु के बाद अनिल शर्मा को ट्रस्टी बनाया गया। इसके साथ ही ट्रस्टी बनने के लिए कुछ ट्रस्टियों के बीच अनुबंध होना भी बताया गया है, जो बारी-बारी से एक समयांतराल के बाद ट्रस्टी बनेंगे।


महंत रामानंद पुरी को अखाड़े से निष्कासित कर त्रयंबक भारती को मनसा देवी मंदिर का अध्यक्ष बनाया गया था। मामला माननीय न्यायालय के समक्ष जाने के बाद न्यायालय द्वारा आदेशित किया गया की महंत रामानंद पुरी ही अध्यक्ष मनसा देवी मंदिर के रहेंगे। फिर महंत रामानंद पुरी को अखाड़े का सचिव नियुक्त किया गया और पुनः अध्यक्ष घोषित किया गया। उसके बाद रामानंद पुरी से भी त्याग पत्र ले लिया गया। रामानंद पुरी और अखाड़े के बीच थाने से लेकर कोर्ट तक झगड़ा चला, जो सर्वविदित है। अब रामानंद पुरी अलग-थलग पड़े अपना जीवन गुजारने के लिए विवश हैं। एक परम्परा चली आ रही है। इसको देखते हुए आगे भी इसी परम्परा का अनुसरण होने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं।

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