हरिद्वार। प्रयागराज कुंभ आते ही अखाड़ों की सरगर्मियां तेज हो गई हैं। बैठकों का दौर जारी है। साथ ही वर्चस्व के लिए भी मशक्कत अंदरखाने शुरू हो गई है। इसके साथ ही नैतिकता की परिभाषा भी अपने अनुरूप गढ़ी जाने लगी है।
हाथरस कांड़ के बाद फर्जी बाबाओं के कुंभ में प्रवेश को लेकर दोनांे ही अखाड़ा परिषद अपना रूख स्पष्ट कर चुकी हैं। फर्जी बाबाओं को कुंभ में प्रवेश न करने देने की बात दोनों की परिषदों की ओर से कही गई है। वहीं कुछ मंड़लेश्वरों के निष्कासन व कुछ को नोटिस दिए जाने की बात भी सामने आ रही है, किन्तु इनकी लिस्ट अभी जारी नहीं की गई है।
वहीं जिन्हें फर्जी बाबा कहा जा रहा है। देखा जाए तो वह बाबा हैं ही नहीं। वे न तो किसी सम्प्रदाय से वास्ता रखते हैं और न ही वह शैव या वैष्णव संत हैं। ऐसे में जो स्वंय फर्जी हैं, उन्हें फर्जी कहने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता।
उधर सूत्रों के मुताबिक उन बाबाओं के खिलाफ कोई बयान नहीं आया जो, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अखाड़े से जुड़े हुए हैं और गंभीर अपराधों में शामिल हैं। कुछ कथित संत तो ऐसे हैं, जो एक संस्था में पदाधिकारी है और उन्होंने अन्य संतों की सम्पत्ति पर कब्जा किया हुआ है। कुछ का विवाद तो न्यायालय तक में विचाराधीन है। कुछ ऐसे भी हैं, जो अपने को बड़ा संत कहते हैं और अखाड़े की सम्पत्ति को बेचने में सबसे आगे हैं।
कुछ कथित संत ऐसे हैं जो अपराधी हैं। कुछ तो संन्यायी होने के साथ-साथ आज भी बच्चे पैदा करने से पीछे नहीं हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें अखाड़ा मण्डलेश्वर मानता है और अखाड़े में बतौर मण्डलेश्वर वह शामिल भी है, किन्तु स्वंय को शंकराचार्य घोषित कर सनातन को बदनाम करने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे संतों के खिलाफ किसी भी परिषद ने कोई कार्यवाही नहीं की और न ही इस संबंध में कोई बयान आया। यहां तक की कुछ संन्यासियों के खिलाफ बलात्कार का प्रयास, अपहरण, धोखाधड़ी के मुकदमें तक दर्ज हैं। बावजूद इसके वे बड़े संत आज भी कहलाते हैं। ऐसे में परिषदों की बयानबाजी समझ से परे है।
स्थिति यह है कि जो अनुकूल न हो, उसे फर्जी करार दे दिया जाता है और जो अनुकूल हो चाहे उसने कितना बड़ा भी अपराध किया हो उसके लिए सौ खून भी माफ। ऐसे में संतों के बयान पर ही सवालिया निशान खड़े होते हैं।
देखना दिलचस्प होगा की प्रयागराज कुंभ में बयानवीर भगवाधरी क्या कुछ नया करते हैं। क्या सही को सही कहने की हिम्मत जुटा पाते हैं या फिर गैरों पर सितम अपनों पर करम की राह पर ही चलते हैं।